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सम्पादकीय

प्रकाशकों द्वारा शोषण के शिकार क्यों हो रहे हैं आज के साहित्यकार

ऋचा वर्मा, पटना

बीते दिनों सोशल मीडिया के साथ -साथ  प्रिंट मीडिया पर भी  इस बात की बहुत चर्चा हुई कि आज के दौर में प्रकाशको द्वारा  साहित्यकारों का शोषण एक आम बात हो गई है।

मामले की तह तक जाने के लिए जब मैंने सोशल मीडिया खंगाला तो पता चला कि हिंदी के प्रसिद्ध लेखक विनोद कुमार शुक्ल ने राजकमल और वाणी प्रकाशन जैसे  संस्थानों पर रॉयल्टी में हेर फेर का आरोप लगाया है। जब इतने बड़े लेखक और इतने बड़े प्रकाशन संस्थान के बीच शोषक और शोषित के रिश्ते की बात पर बहस चल रही है तो आज के समय में सोशल मीडिया के आविर्भाव  के कारण ‘अहं ब्रह्मास्मि ‘ की तर्ज पर ‘अहं लेखकस्मि’ ,’अहं कविस्मि’, अहं साहित्यकारस्मि’ जैसे उग आये साहित्यकारों को, जिन्हें रातों रात हिंदी के चेतन भगत या फिर निराला, महादेवी वर्मा, दिनकर , जयशंकर प्रसादया बच्चन बनने की महत्वकांशा हो और वे येन- केन- प्रकारेण अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाना चाहते हों , और ऐसी मनोवृति का लाभ उठाते हुए कोई प्रकाशक उनसे मनमानी कीमत पर पुस्तक प्रकाशित करने को तैयार हो जाए ।ऐसी पुस्तक जिसे वह लेखक भी दुबारा पढ़ने की जहमत नहीं उठाए, आम लोगों की तो क्या ही बात है, तो इसे मैं शोषक और शोषित की संज्ञा न देकर यह कहूंगी की यह ‘आ बैल मुझे मार ‘वाली स्थिति खुद लेखको  द्वारा ही पैदा की जाती है। सत्तर और अस्सी या उससे पहले के दशकों  मे शिक्षा और साहित्य के प्रति लोगों में जो इज्जत जो ,रुझान हुआ करता था, वह आज की पीढ़ी में नदारद है। उस जमाने में भले ही साक्षरता दर बहुत कम था लेकिन लोग रामचरितमानस इसके अलावा बड़े लोगों, ज्ञानी लोगों के भाषण, उपदेश ,प्रवचन और सत्संग या कोई भी सत्यनारायण कथा जैसी धार्मिक कथा को बड़े ध्यान से सुनते थे, गुनते थे, और याद रखते थे उसके बनीस्पत आज की तथाकथित शिक्षित पीढ़ी इन सब चीजों पर ध्यान देने में अपनी हेठी समझती है। नतीजा सामने है  बोलने वाले सब हैं, सुनने वाला कोई नहीं तो सबकी आवाज ‘नक्कारखाने में तुती की आवाज’ की तरह अनसुनी ही रह जाती है। अब ऐसे में लोग अपनी पुस्तकें छपवा कर सोशल मीडिया पर उसकी तस्वीरें डालते हैं और परस्पर एक दूसरे को शुभकामना संदेश और बधाइयां देते हैं तो इसमें प्रकाशकों की क्या गलती । आज मैं किसी का पोस्ट पढ़ रही थी फेसबुक पर। लिखा गया था कि आज के विद्यालय पढ़ने की जगह कम, शॉपिंग मॉल ज्यादा हो गए हैं, जहां स्कूल यूनिफॉर्म, किताबें, जूते बेल्ट,बैग इत्यादि सब बाजार से कई गुणा ज्यादा कीमतों पर मिलते हैं ,और जिन्हें खरीदना हर अभिभावक की मजबूरी होती है । फिर मैं अस्सी और उसके पहले के दशकों की बात करूंगी,जब हम सब पढ़ाई करते थे ,उस समय हम अपनी पुस्तकें आधे दामों पर जूनियर क्लास के बच्चों को बेच देते थे और सीनियर क्लास के बच्चों से आधे दामों पर खरीद लेते थे। लेकिन इस चलन को खत्म करने के उद्देश्य से ही अब हर साल पाठ्यक्रम की पुस्तके भी बदल दी जाती हैं। जब प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा का इतना बड़ा व्यवसायीकरण हो गया है तो साहित्य जिससे  की लोगों को आशा होती है कि वे  रातों- रात प्रसिद्धि के उच्च शिखर पर पहुंच जाएंगे का व्यवसायीकरण होता है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। अब तो तथाकथित साहित्यकारों के शोषण के लिए किसी वास्तविक प्रकाशक की भी जरूरत नहीं है । अब तो बहुत सारे ऐसे समूह,या फेसबुक की भाषा में  कहें तो ऐसे मठ अस्तित्व में आ गए हैं, जो सहयोग राशि के नाम पर सदस्यों से पैसे लेते हैं और साप्ताहिक कार्यक्रमों में डिजिटल प्रमाण पत्रों की झड़ी लगा देते हैं  सभी सदस्यगण बहुत ही गर्व के साथ उन प्रमाण पत्रों को अपने स्टेटस पर साझा करते हैं ।सहयोग राशि के बल पर बहुत सारी पत्र- पत्रिकाएं भी ऐसी -ऐसी रचनाएं प्रकाशित कर देती हैं जिनमें ना भाषा की शुद्धता होती है ना तथ्यों का प्रमाण।

मैं नहीं कहती कि लोग आपस में ना मिले- जुले और खुश होने का कोई मौका ना तलाशें पर इन सबके लिए साहित्य को माध्यम बनाना कहां तक उचित है।एक और बात सर्व विदित है हिंदी साहित्य सेवा कर धन कमाना एक दिवास्वप्न की भांति है,   कुमार विश्वास की तरह हर कवि मंचीय कवि बनकर अपार धन दौलत नहीं कमा पाता। इतिहास गवाह है कि पंत से लेकर प्रेमचंद तक और नागार्जुन से लेकर रेणु तक कोई भी साहित्यकार अपनी आजीविका के लिए साहित्य पर निर्भर नहीं करता था। और इधर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के कारण पाठको की रूचि कम हो गई है पढ़ने में। फलत : बहुत सी साहित्यिक पत्रिकाएं प्रकाशित होना बंद हो गई हैं और बहुत सारे समाचार पत्रों ने साहित्यिक पृष्ठ प्रकाशित करना भी बंद कर दिया है। अब ऐसे में कुछ तेज -तर्रार लोगों ने साहित्यकारों से पैसे लेकर उनकी रचनाओं के साझा संकलन या एकल संकलन प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया तो वह उन अपरिपक्व लेखकों पर अहसान ही तो किया। मैं तो कहूंगी कि न‌ई शिक्षा नीति में भविष्य के  साहित्यकारों को भी चिन्हित कर उन्हें उस ढंग से चिन्हित और शिक्षित किया जाये कि भविष्य में वे केवल और केवल साहित्य सेवा  से अपनी आजीविका चला सकें और अपने रोचक और प्रेरक साहित्य सृजन से पाठकों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर सकें जो अपने इस मनोरंजन हेतु खुशी-खुशी शुल्क अदा कर सकें। इसके लिए लेखकों लेखकों को खुद ही प्रबुद्ध लगनशील ,धैर्यवान एवं अध्ययनशील होना पड़ेगा। जब लेखकों और पाठकों का एक अच्छा वर्ग तैयार हो जाएगा तो प्रकाशक भी स्वत: ही उदार एवं प्रसन्न हो जाएंगे।  हम सब जानते हैं कि अर्थशास्त्र पूरी तरह से मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित है  पुस्तकों की मांग बढ़ेगी तो ही लेखकों की मांग भी बढ़ेगी, और उसी अनुपात में लेखकों का पलरा  प्रकाशकों  से भारी भी हो जाएगा ।

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