उस बुजुर्ग महिला को फर्श पर पोछा लगाते देख मेरे मन के भीतर एक अजीब सी सिहरन और दर्द का ज्वार-भाटा उत्पन्न हो रहा था।
वह खांस भी रही थी और अपना काम भी कर रही थी।तभी भीतर से तेज आवाज आई-सुनती हो अगर साफ सफाई का काम हो गया हो तो किचन में जाकर जुठे बर्तनों को अच्छी तरह साफ कर लेना,और हां बाथरूम में मेरे और बच्चों के कपडे पडे हैं उसे भी अच्छी तरह से धोकर छत पर पसार देना।
मैं कुछ आगे समझ पाता तभी मिसेज भाटिया की नजर मुझपर पडी और बोली-अरे भाई साब आप कब आए?आईए न बैठिए,मैनैं कहा नहीं थोडा जल्दी में हुं,राकेश भाटिया जी मुझे ये थैला आपको देने को बोला था,लिजीए।थैला खोलते हीं उसके आंखों मे जैसे हजारों जुगनुओं की रौशनी वाली चमक पैदा हो गई, अरे वाह!राकेश आई लव यु माई डार्लिंग!! और और फिर वह उस थैले से एक साडी निकाल कर उसे चुमने लगी।मैने कहा, अच्छा मिसेज भाटिया अब मै मचलता हुं।अरे चाय तो पीकर जाईए,आज मैं बहुत खुश हुं…तभी मैने जोर जोर से उस वृद्ध महिला के खांसने की आवाज सुनी।मुझसे रहा न गया और मै पुछ बैठा-मिसेज भाटिया,यह वृद्ध माता जी कौन.हैं?उसने कहा अरे वो?राकेश के गांव से आई है,बेचारी बिधवा और नि:संतान है सो यहीं काम धाम करती है।राकेश को तो आप जानते हीं कितने दयालु हैं,उसने कहा इधर उधर कहाँ जाएगी सो इसे अपने हीं घर में रख लो,लेकिन इस करमजली को रोज कुछ न कुछ बिमारी होता हीं रहता है।थोडी देर मे वह वृद्ध औरत हाथ में पानी और चाय का ट्रे लेकर सामने आई।मैने गौर से उसके चेहरे को देखा और जो समझ पाया वह मेरे लिए असहनीय था।दया और घृणा के भंवरलाल में फंसा मैं खुद को महसुस कर रहा था।मैने उनसे कहा लाईए माता जी यह ट्रे और फिर उनके हाथ से वह लेकर उनसे भी बैठने का आग्रह किया।मेरे इस आग्रह से उसके चेहरे की झुर्रियों पर अनेक तरह अवसाद और दर्द की लकीरों को मैं महसुस कर रहा था।तभी मिसेज भाटिया ने कडक आवाज में कहा-अब खडी खडी यहाँ क्यों वक्त खराब कर रही हो,जाकर जो बताया है वह काम करो..फिर वह वृद्ध माता एकबार मेरे तरफ मेरे कलेजे को चीरने वाली नजरों से देखा और धीरे -धीरे घर के अंदर चली गई। फिर मिसेज भाटिया ने कहा-अरे भाई साहेब, चाय तो पी लिजीए,मैने कहा नहीं आज मेरा फास्टिंग है,मांफ किजीए फिर कभी…फिर वहां से मैं तेजी से बाहर आकर कुछ दुर जाकर सडक के किनारे अपनी बाईक खडी कर उस वृद्ध माता की मन के टीस को खुद में महसुस कर रहा था,उसका चेहरा मेरे मन की गहराईमें समां चुका था,बिल्कुल राकेश जैसी भुरी आंखे,और दाहिने ओठ के नीचे एक छोटा सा लाल मस्सा..और चेहरा हु बहु राकेश भाटिया से मिलता जुलता..राकेश के प्रति मेरे मन में नफरयुक्त घीन पैदा हो रही थी…अपनी सगी मां के साथ ऐसा बर्ताव…मैं बचपन से हीं मां के प्यार के लिए तरसता रहा हुं आज मुझे वह कमी दुर होता दिखने लगा था।कितना अपनापन और दर्द युक्त प्यार था मेरे लिए उसकी आंखों में।ऊफ!! मिसेज भाटिया जैसी मार्डन लेडी, किटी पार्टी और रमीं खेलने वाली झुठी शानो-शौकत का रुआब झाडने मे माहिर और शातिर, जितनी खुशी से अपनी मंहगी साडी को चुम रही थी,उस वृद्ध माता के लिए एक सस्ता कफ सिरफ उस साडी से ज्यादा बेशकीमती था मेरी नजर में…मेरा सिर चकरा रहा था।गांव से शहर में आकर बसने से क्या रिश्ते भी बदल जाते हैं?क्या अपना खुन भी अपना नहीं कहलाता? यही हमारी हमारी हाईटेक एजुकेशन हमें सिखाती है?जिस मां के कोख राकेश ने जन्म लिया है आज उसी को उसकी पत्नी मिसेज भाटिया घर की नौकरानी और नि:संतान बिधवा बता रही है।मैनें मन हीं मन तय किया कि कल किसी बहाने से फिर मैं मिसेज भाटिया के घर जाकर उस वृद्ध माता को बाहर किसी बहाने ले जाकर हमेशा के लिए अपने गांव वापस लौट जाऊंगा। आज मैं मन हीं मन काफी खुश था कुछ हीं घंटे मे मैं अपनी मां को लेकर अपने गांव पहुंचने वाला था,आज शहर से जो दौलत कमा कर मैं वापस गांव लौट रहा था,वह शायद हीं किसी खुशकिस्मत को नसीब होता होगा। गांव में मेरी धर्मपत्नी सुजाता अपनी सासु मां और मेरे दो बच्चे के साथ अपनी दादी मां के स्वागत के लिए बैचेनी से इंतज़ार कर रहे हैं।और मै माँ के चेहरे पर खुशी के साथ सुकून की लकीरों को अनवरत देख रहा था.