डा पुष्पा जमुआर,
पटना,
जीवन में कोई भी कार्य करना हो,बिना तैयारी किये सफलता सदैव संदिग्ध रहती है ।लघुकथा भी इस स्वभाविक नियम का अपवाद नहीं है ।”किसी भी साहित्य रचना के सृजन हेतु मुख्यतः दो तत्वों का हीं उपयोग किया जाता है –(1)विषय- वस्तु एवं (2)शिल्प ।कारण ‘विषय वस्तु ‘जिसे ‘अंतर्वस्तु ‘या कथा साहित्य लेखन में ‘कथानक ‘भी कहा जाता है , रचना की आत्मा होती है और ‘शिल्प ‘के शरीर के रूप में प्रस्तुत होता है ।’आत्मा ‘बिना शरीर शव है और बिना शरीर आत्मा भी रह नहीं सकती। अतः लघुकथा सृजन में कथानक की प्रस्तुति हेतु ‘शिल्प की अनिवार्यता होती है ।“
लघुकथा -सृजन में सर्वप्रथम एक ऐसे कथानक की ज़रूरत होती है जो इक़हरा होने के साथ क्षण भर का हो ।अतः कथानक की खोज जीवन में घर-परिवार, आस-पड़ोस, समाज या आप -बीती, जग बीती, समाचार-पत्र में पढ़ी ख़बरें तथा चाय -पान की दुकानों में चर्चा करते लोगों के अलावा कभी-कभी सपनों में, कभी एकाएक -कुछ कौंध से, पुरानी पुस्तकों में कुछ पूर्व में पढ़ा गया, कभी घर में खेलते बाल -बच्चों की हरक़तों से, कभी प्रकृति के अन्य -अन्य उपादानों से भी ‘प्लाॅट’ यानी कथानक मिल जाते हैं ।घटनाओं के अतिरिक्त स्थापित विचारों या मनोवैज्ञानिक के सिद्धांत भी कथानक बन सकते हैं, यह लेखक की प्रतिभा पर निर्भर करता है ।जब हम लघुकथा हेतु इक़हरा एक क्षण, घटित कथानक मिल जाए तो इसके तुरंत बाद ज़रूरत होती है उस कथानक को किस प्रकार के अनुकूल एवं सटिक शिल्प में प्रस्तुत किया जाए ।शिल्प सदैव कथानक के अनुकूल एवं सटिक होने पर ही वह लघुकथा को श्रेष्ठता प्रदान कर सकता है अन्यथा बना –बनाया खेल बिगड़ भी सकता है ।जैसे यदि किसी मनोविज्ञान के सिद्धांत या विचार को आधार बनाकर लघुकथा लिखनी है तो उसमें पात्रों की मनोदशा को गहराई तक जाकर स्वाभाविक ढ़ंग से प्रस्तुत करना होगा ।हमें ऐसी घटनाओं को कथानक के रूप में चुनना चाहिए जो सहज विश्वसनीय हो यानी वे ‘व्यक्ति का सच ‘ न होकर तत्कालीन ‘समाज का सच’होना चाहिए ।तभी वह प्रभावकारी हो पाएँगी ।
यहाँ यह ध्यान देना होगा कि शिल्प स्वतंत्र रूप से कोई तत्व नहीं होता ।शिल्प तो उद्देश्य, परिवेश, संवाद, चरित्र -चित्रण, भाषा शैली, शीर्षक और समापन विंदु का सामुहिक रूप है ।किन्तु किसी रचना को मार्मिक एवं संवेदना के स्तर पर स्पर्श करने वाली रचना की प्रस्तुति में कल्पना एवम् नाटकीयता भी अनिवार्य है ।कभी-कभी स्थिति ऐसी भी आ जाती है हमें अपने अपनी सटिक एवम् स्तरीय अभिव्यक्ति हेतु मानवों को छोड़कर मानवेतर पात्रों का सहारा लेना पड़ता है, किन्तु यह बड़ा जोखिम भरा काम होता है ।जरा सी चूक होने पर अच्छा -खासी लघुकथा बोधकथा बन जा सकती है ।
किसी भी घटना को यदि हू-ब-हू लिख दिया जाए तो वह किसी समाचार -पत्र का समाचार बन कर रह जाएगी ।यदि अपनी या किसी अन्य की ‘आप -बीती ‘लिख दें तो वह आत्मसंसमरण अथवा संस्मरण बन कर रह जाएगी ।अतः जरूरत के अनुसार उसमे कल्पना एवं नाटकीयता को स्वभाविक एवं विश्वसनीय बनाकर पात्र तथा उसके चरित्रानुकूल भाषा जिस साहित्य में ‘उच्चारित भाषा ‘कहा जाता है, का उपयोग करना होगा ।
कथाकार का यह प्रयास होना चाहिए कि जहाँ तक संभव हो वह रचना में स्वयं उपस्थित होकर कुछ न कहे , जो कहना हो पात्र स्वयं कहें ।पात्रों एवं उनके चरित्रों को सोचते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि चरित्र -चित्रण की अभिव्यक्ति छोटे -छोटे संवादों के माध्यम से हो जाए ।परिवेश की अभिव्यक्ति हेतु संवादों को हीं माध्यम बनाया चाहिए हमें इस बात हेतु सदैव सतर्क रहना चाहिए कि लघुकथा एक लघआकारिय विधा है यानी बिना किसी फालतूपन के कम से कम शब्दों में क्षिप्रता एवं त्वरा का समुचित सहारा लेकर प्रतीकात्मक यानी सांकेतिक भाषा का उपयोग करना चाहिए, इसमें विराम -चिन्ह भी आकर को लघुता देने में सहायक होते हैं ।अनेक जगह डाॅट-डाॅट भी अनलिखे शब्दों को अभिव्यक्ति प्रदान कर जाते हैं ।अन्य विधाओं के अपेक्षा लघुकथा में इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि अनेक लघुकथाओं में शीर्षक हीं संप्रेषण का माध्यम बन जाता है ।
वस्तुतः अंत में पूरी लघुकथा पर विचार कर के देखना चाहिए कि इस लघुकथा से पाठकों तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई -न-कोई मानवोतथानिक सकारात्मक संदेश अवश्य ही पहुंचना चाहिए ।
इतना सोच -विचार करने के पश्चात अपनी सोची हुई लघुकथा पर विचार कर के यह देखना चाहिए कि वस्तुतः वह रचना बन पाई है या नहीं।कारण किसी भी रचना को रचना बनाने हेतु उसमें सर्जनात्मक, कल्पनानिषठ ,प्रेरणातमक, और सुचनातमक सृष्टिकयाँ प्रत्यक्ष होनी चाहिए यानि उनका एहसास होना चाहिए ।इसी के साथ लघुकथा एवं उसके कथानक के अनुसार उसमे विवरण, वर्णन, वितर्क और व्याख्या को भी संवाद– रूप में आवश्यक होने पर विद्यमान होना चाहिए ।
कोई भी लघुकथा लिखने से पूर्व मैं समझती हूं कि शायद प्रत्येक कथाकार को इतनी तैयारी तो रफ़ -काग़ज पर नोट्स बना कर या अपने मन मस्तिष्क में चिन्तन– मनन करके रचना को अपने भीतर ही मुकम्मल कर लिया जाना चाहिए ।इतना हो जाने के ही प्रायः लघुकथा को काग़ज पर सहजता से उतार जाता है । लघुकथा लिखनी से पूर्व इन-इन बातों को ध्यान में रखते हुए लघुकथा सृजन से मुकम्मल लघुकथा तैयार हो जाते है ।