मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

लट्ठतन्त्र की वापसी

अनिल सिंह

जैसा कि ‘राग दरबारी’ पढ़ने वाले जानते हैं, लोकतन्त्र के जन्मकाल से लेकर आजतक चुनाव जीतने की तीन तरकीबें ही ईजाद हो सकी हैं। ‘राग दरबारी’ में इनका वर्णन ‘रामनगर वाली’, नेवादा वाली’ और ‘महिपालपुर वाली’ तरकीबों के नामों से हुआ है।

रामनगर वाली तरकीब सबसे पुरानी है, और शुद्ध लट्ठ-शक्ति पर आधारित है। इसके अनुसार चुनाव वह पक्ष जीतता है, जिसका लट्ठ सबसे मजबूत होता है। कालान्तर में इस तरकीब में कई सुधार हुए, जिनमें प्रमुख थे: बाँस के तेल पिलाये लट्ठ के स्थान पर चाकू-छुरियों, बन्दूकों और बाद में गाँधी जी के चित्रों से युक्त रिज़र्व बैंक के गवर्नर द्वारा प्रत्याभूत कागज़ी नोटों के मिले-जुले प्रयोग, पर रामनगर का मूल सिद्धान्त, कि चुनाव वह जीतता है जिसका लट्ठ सबसे मजबूत होता है, अभी भी अटल है। लोकतन्त्र में और ख़ास तौर पर भारतीय लोकतन्त्र में इस पद्धति से अनेक चुनाव जीते गये, और अभी भी ख़ास तौर पर स्थानीय निकायों के चुनावों में आज भी यह पद्धति खुलेआम प्रयोग में लायी जाती है।

नेवादा वाली तरकीब भी देखा जाय तो रामनगर वाली तरकीब की ही एक परिष्कृत रूप है: समय के साथ विकास के क्रम में जब मनुष्य ने हाथों के स्थान पर बुद्धि से काम लेना आरम्भ किया, तब इस पद्धति का जन्म हुआ। लट्ठ के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग क्रमिक रूप से बढ़ने लगा, और जब बाहुबल का स्थान पूरी तरह बुद्धि ने ले लिया, तब इसे एक स्वतन्त्र पद्धति के रूप मान्यता मिली, जिसे नेवादा वाली पद्धति कहा गया। इस तरकीब से चुनाव लड़ने वाला मतदाताओं के दिमाग से खेलता है, और उन्हें विश्वास दिला देता है कि वह तो देवताओं के द्वारा भेजा गया एक देवदूत है, और मतदाताओं का कल्याण उसी को चुनने में ही है। ‘राग दरबारी’ में नेवादा के चुनाव में ब्राह्मण उम्मीदवार ने मतदाताओं के दिमागों को सुन्न करने के लिए गाँजे का प्रयोग किया था, और बाद में उसके स्थान पर पहले देशी और फिर विदेशी शराबों तथा मुफ़्त सुविधाओं के आश्वासनों का प्रयोग होने लगा, पर मूल सिद्धान्त वही रहा: मतदाताओं की बुद्धियों को इतना सुन्न कर दिया जाय कि वह अपनी सोचने-समझने की शक्ति ही खो बैठें, और एक ठग के हाथों में अपना भविष्य सौंप दें। यह तरकीब अभी तक उपयोग में लायी जा रही है, और हाल के दिल्ली तथा तमिलनाडु के विधानसभाओं के चुनावों में इसका सुन्दर प्रयोग दृष्टिगोचर हुआ, पर यहाँ यह याद दिला देना आवश्यक है कि नेवादा-पद्धति रामनगर-पद्धति से ही निकली है, और नेवादा-पद्धति के संस्थागत रूप ले लेने के बाद भी रामनगर-पद्धति का महत्त्व कम नहीं हुआ, और जैसा ऊपर बताया गया है, स्थानीय निकायों जैसे ग्राम प्रधानी के चुनावों में अभी भी यही पद्धति सबसे प्रभावी सिद्ध हो रही है। स्वयम् नेवादा के ब्राह्मण उम्मीदवार को नेवादा-पद्धति के अविष्कार के क्रम में इस अनुभव से गुज़रना पड़ा कि जहाँ लात चलती है, वहाँ बात नहीं चलती।

महिपालपुर वाली तरकीब का जन्म नेवादा वाली तरकीब के ही गर्भ से हुआ जिसमें बुद्धि का स्थान तकनीक ने ले लिया। यह सिद्धान्त कहता है कि चुनाव वह उम्मीदवार जीतता है जो अपने प्रतिद्वंद्वियों की अपेक्षा उन्नत तकनीक का प्रयोग करता है: महिपालपुर में इसका अविष्कार एक दुर्घटना से हुआ जिसमें तकनीक के नाम पर एक घड़ी का उपयोग हुआ, जो उस समय एक दुर्लभ वस्तु हुआ करती थी। बाद में कम्प्यूटरों, डाटा एनालिसिस आदि उपकरणों से इस पद्धति में व्यापक सुधार हुए, यहाँ तक कि भारत के चुनाव आयोग ने भी महिपालपुर की घटना से प्रभावित होकर चुनाव का तरीका ही बदल डाला और बैलट पेपरों के स्थान पर ईवीएम से चुनाव कराना शुरू कर दिया, पर भारत के अतीत-प्रेमियों के बीच रामनगर और नेवादा की पद्धतियों की स्मृतियाँ और  उपयोगिता यथावत बानी रहीं। उच्च तकनीक से चुनाव के दौर में भी उस उम्मीदवार को स्वाभाविक बढ़त मिलती है जिसके पास अधिक साधन हों जिससे  वोटरों को चुनाव-केंद्रों तक पहुँचाने आदि की व्यवस्था हो सके, जो धनबल का प्रतीक है, और जो वोटर लिस्ट में ही हेर-फेर करा सके, जो बुद्धिबल का प्रतीक है।

अब क्योंकि चुनाव जीतने की कोई चौथी तरकीब विकसित ही नहीं हुई, इसलिए विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार यह स्वाभाविक ही है कि लोग सैद्धान्तिक रूप से लगभग त्याज्य मान ली गयी और लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों के लिए लगभग भुला दी गयी रामनगर-पद्धति की ओर लौट रहे हैं। जैसे ‘७० के दशक में फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ का संगीत पुराने ढंग का होते हुए भी उस पीढ़ी के लिए एक नयापन लेकर आया, जिसने वैसा संगीत कभी सुना ही नहीं था, जैसे शतरञ्ज की उच्चस्तरीय प्रतियोगिताओं में ५० साल पहले भुला दिये गये ‘पेत्रोव डिफेन्स’ को गारी कास्परोव ने पुनर्जीवित किया, उसी प्रकार चुनाव-वैज्ञानिक जीवन के हर क्षेत्र में बुद्धि और तकनीक के बढ़ते हस्तक्षेपों के बीच बुद्धि और तकनीक के समन्वय से लट्ठ के उपयोग के साथ नये प्रयोग करके रामनगर वाली पद्धति को नवजीवन प्रदान कर रहे हैं। इसका एक सुन्दर प्रयोग हमने अप्रैल २०२१ में सम्पन्न हुए बंगाल-विधानसभा के चुनाव में देखा जिसमें अपने प्रतिद्वन्द्वी भाजपा द्वारा नेवादा पद्धति से आक्रामक प्रचार द्वारा मतदाताओं के दिमागों को सुन्न करने के प्रयासों का मुकाबला मोमोता दीदी ने शुद्ध लट्ठ से किया, और मतदाताओं के मन में इतना डर बैठा दिया कि भाजपा का प्रचार किसी काम न आया। इतना ही नहीं, चुनाव-परिणाम घोषित होने के बाद उन्होंने भाजपा को वोट देने वालों को इतना पिटवाया कि आने वाले कई चुनावों में वह भाजपा को वोट नहीं देंगे।

बंगाल में दीदी की इस अभूतपूर्व सफलता से कई चुनाव-वैज्ञानिकों को रामनगर वाली पद्धति को उसके शुद्धतम रूप में प्रयोग करने की प्रेरणा मिल रही है। पञ्जाब में हम देख रहे हैं कि कांग्रेस को उसके हाईकमान ने ही समाप्त कर दिया, अकालियों पर भ्रष्ट होने के आरोप अभी तक चिपके हुए हैं, और आम आदमी यह मानता है कि आम आदमी पार्टी को वोट देने का मतलब पञ्जाब को अशान्ति के एक लम्बे दौर में धकेल देना होगा; ऐसे में भाजपा ही एक ऐसा दल है जिसके विरुद्ध आन्दोलनरत मुट्ठी भर ‘किसानों’ की बात अगर छोड़ दी जाय, तो जनता के पास कुछ भी नहीं है, और अगर उसे स्वयम् पर विश्वास हो और वह चुनाव आने तक चुनाव जीतने और सरकार बनाने के प्रति एक गम्भीर दल के रूप में अपने को स्थापित कर सकती है, तो पञ्जाब की गद्दी उसकी प्रतीक्षा कर रही है, पर रामनगर-पद्धति के सुन्दर प्रयोग द्वारा  विरोधियों ने वहाँ ऐसा वातावरण बना दिया है जहाँ भाजपा के कार्यकर्ता ही नहीं, उनके बड़े नेता भी सड़कों पर निकलने से ही डर रहे हैं, और सम्भव है कि उनमें से अधिकांश चुनाव लड़ने से ही इन्कार कर दें। जहाँ लात चलती है, वहाँ बात नहीं चलती।

हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ जम्मू कश्मीर में भी हम देख रहे हैं कि मुट्ठी भर लट्ठधारी भाजपा के नेताओं को घरों से निकलने ही नहीं दे रहे हैं। ऐसे में वह चुनाव-प्रचार क्या खाकर करेंगे। कश्मीर में विश्वास-बहाली के पिछले दो सालों के मोदी-सरकार के कमरतोड़ प्रयासों जिनमें राज्य के विशेष दर्जे की वापसी को धरातल पर न उतरने देने और ‘रौशनी ऐक्ट’ को अवैध ठहराये गये हाईकोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने जैसे जैसे कायरतापूर्ण प्रयोग भी शामिल हैं, पर चन्द बन्दूकधारी पानी फेर दे रहे हैं। अभी लखीमपुर में भी हमने देखा कि लट्ठ के सुन्दर प्रयोग के द्वारा भाजपा  स्थानीय नेताओं को यह चेतावनी दी गयी कि प्राण प्रिय हों तो घरों से मत निकलो, और यदि उत्तर प्रदेश में भी योगीजी का लट्ठ ‘किसानों’ के लट्ठ से मजबूत न निकला, तो उन्हें भी राजनीति से सन्यास ही लेना होगा। देश में बाढ़ की तरह बढ़ती जा रही भाजपा को रोकने में लगे उसके विरोधियों को रामनगर वाले तरीके में अब आशा की एक नयी किरण दिखाई दे रही है।

किरण दिखाई दे रही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चुनाव-विज्ञान एक नये युग में प्रवेश कर रहा है जो भारत को लोकतन्त्र के मकड़जाल से निकालकर लट्ठतन्त्र की ओर ले जा रहा है। आशा करनी चाहिए कि इस नये घटनाक्रम से विश्व के अन्य लोकतान्त्रिक देशों में भी रामनगर वाली पद्धति लोकप्रिय होगी, और वहाँ भी लट्ठतन्त्र शीघ्र स्थापित होगा। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

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