मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

स्त्री विमर्श के बहाने

ऋचा वर्मा

स्त्री विमर्श, महिला सशक्तिकरण और वीमेंस लिब यह सब कुछ ऐसे शब्द हैं जिनकी चर्चा आजकल जोरों पर है या दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आधुनिक समय में सबसे ज्यादा ट्रेंड करने वाले शब्द हैं, जो कि बहुत आवश्यक भी है। महिलाओं पर पुरूषों के राज करने की प्रवृत्ति का इतिहास बहुत पुराना है। ईव का ऐडम के शरीर का एक हिस्सा होना, पत्नी को पति का वामांगी होना, जुए में द्रौपदी को हारना और फिर उसका चीरहरण, पुत्रों का अपने पिता के सिंहासन से लेकर उनकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होना, बहुपत्नी प्रथा, स्त्रियों को क्रय – विक्रय की वस्तु समझना, बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा से लेकर आज के युग में कार्य स्थल पर स्त्रियों का यौन शोषण और आये दिन छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक के साथ बलात्कार की खबरें.. स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर ही हुई है। और इन्हीं परिस्थितियों ने साहित्यकारों को स्त्री विमर्श, सामाजिक कार्यकर्ताओं को विभिन्न तरह के आंदोलन इत्यादि करने के लिए प्रेरित भी किया है।

पर मेरे विचार में इन सबसे जरूरी है महिलाओं को खुद के प्रति जागरूक होना, यही एक चीज है जो वर्षों से तिरस्कृत होती महिला समाज को एक गरिमामय स्थिति में ला सकती है। महिलाओं को अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि वे पुरूषों की तरह दिखें या उनकी तरह व्यवहार करें। स्त्रियों को ईश्वर ने पुरूषों के विपरीत ऊपर से कोमल और अंदर से मजबूत बनाया है, गुलाब का फूल, फूल ही बना रहेकांटा बनने की कोशिश कर वह प्रकृति के संतुलन को ही बिगाड़ेगा।

–पर मेरे विचार में इन सबसे जरूरी है महिलाओं को खुद के प्रति जागरूक होना, यही एक चीज है जो वर्षों से तिरस्कृत होती महिला समाज को एक गरिमामय स्थिति में ला सकती है। महिलाओं को अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि वे पुरूषों की तरह दिखें या उनकी तरह व्यवहार करें। स्त्रियों को ईश्वर ने पुरूषों के विपरीत ऊपर से कोमल और अंदर से मजबूत बनाया है, गुलाब का फूल, फूल ही बना रहेकांटा बनने की कोशिश कर वह प्रकृति के संतुलन को ही बिगाड़ेगा।

उसी प्रकार ड्रेसिंग सेंस में सौम्यता और व्यवहार में शालीनता कोई पिछड़ापन की निशानी नहीं है, वैसे यह निहायत ही व्यक्तिगत विषय है जो कि परिस्थितियों पर निर्भर करता है। ‘महिला ही महिला की दुश्मन होती है’ यह बात यदा कदा सुनने को मिलती है जो कि शतप्रतिशत सही भी है। हम कितना भी बैनर लेकर जुलूस निकाल लें, कैंडल मार्च निकाल लें, कितना भी साहित्य रच पढ़ लें, पर व्यक्तिगत जिंदगी में अगर हम अपनी सबसे नजदीकी महिला को अपनापन और प्यार नहीं देंगे तो स्थितियां कभी भी नहीं सुधरेंगी। सच ही कहतें हैं कि घर का दिया जलाने के बाद ही मस्जिद का दिया जलाना चाहिए। एक मां के रूप में महिला अपने बेटे को अच्छे संस्कार, बेटी को स्वावलंबी बनने का पाठ, बहू को प्यार और इज्जत, अपनी कामवाली को थोड़ी शिक्षा देकर अपने प्राथमिक कर्त्तव्यों का निर्वहन कर सकती है। यही बात कामकाजी महिलाओं के साथ लागू होता है। एक साथ काम करने वाली महिलाओं को चाहिए कि वे हमेशा एक दूसरे का साथ दें और एक दूसरे का सम्मान करें। एक लंबे अर्से तक घर की चारदीवारी में बंद महिलाएं, जिनके अंतस में यह बात बैठ जाती है कि बिना किसी पुरुष के सहारे के वे बाहरी दुनिया संभाल ही नहीं सकतीं हैं, अगर वे किसी मजबूरी वश नौकरी में आतीं हैं तो उनमें अपेक्षाकृत आत्मविश्वास की कमी होती है, और यही कमी उन्हें कार्यस्थल में किसी धूर्त पुरूष सहकर्मी से बिना किसी शर्त के दोस्ती करने के लिए प्रेरित करती है, और वही तथाकथित शुभचिंतक पुरूष सहकर्मी उक्त महिला का यौन शोषण करने के बहाने और अवसर की तलाश में लगा रहता है। ‘मजबूरी वश’ और ‘आत्मविश्वास’ शब्दों का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि जो महिलाएं अपनी योग्यता और प्रतिभा के आधार पर किसी भी प्रकार का कैरियर चुनती हैं, उनका यौन शोषण करना लगभग असंभव होता है, अगर उनकी किसी पुरुष से घनिष्ठता होती है तो वह उनका व्यक्तिगत चुनाव होता है जिसे हम कुछ मामलों में अनैतिक कह सकते हैं, पर, यौन शोषण के दायरे में कदापि नहीं ला सकते हैं। यह बात जीवन के हर क्षेत्र, साधारण से सरकारी कार्यालयों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से लेकर चकाचौंध भरी फिल्म इंडस्ट्री तक लागू होती है।अगर एक जगह कार्य कर रही महिला आपस में मिलजुलकर  रहें तो अपने कार्य के दौरान आई ज्यादातर समस्याओं का समाधान वे आपस में ही कर सकतीं हैं, और ऐसी परिस्थिति में जरूरत पड़ने पर, अगर वे अपने किसी पुरुष सहकर्मी से मदद लेतीं भी हैं तो वह भी मित्रवत व्यवहार ही करेगा, जैसा वह अपने किसी अन्य पुरुष मित्र के साथ करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे अपने आसपास के माहौल में  सामंजस्य स्थापित करना ही पड़ता है और स्त्री हो या पुरुष सभी से मैत्रीपूर्ण व्यवहार भी स्थापित करना पड़ता है,समस्या तब आती हैं जब उसे लगता है कि किसी खास सहकर्मी या फिर अपने बॉस से नजदीकियां बढ़ाने पर उसे कुछ ज्यादा रियायत मिलेगी, और बहुत बार ऐसा होता भी है, लेकिन किस मूल्य पर? वही ढाक के तीन पात,  आर्थिक गुलामी या तंगी से छुटकारा पाने के लिए उसने घर से बाहर कदम रखा, और यहां मानसिक गुलामी को स्वीकार कर लिया। यह याद रखने की बात है कि पुरुष वादी सोच महिला एकता को कभी प्रश्रय नहीं देगी। पुरूषवर्ग महिलाओं के प्रति अधिकतर आलोचक की भूमिका में ही रहता है , फलस्वरूप महिला के रंग रूप से लेकर उसके आचरण और चरित्र तक पर अपनी बेबाक राय रखने में वह कभी नहीं हिचकता। इधर महिलाओं की भी कंडीशनिंग ऐसी होती है कि उनकी जिंदगी का मकसद ही हो जाता है अपने आप को पुरूषों के नजर में सही दिखना और यही वह बिंदु है जहां से महिलाएं खुद को शोषण करने के लिए प्रस्तुत करती हैं।भारतीय पुरुष समाज ने अपनी स्वार्थ और सुविधा की पूर्ति के लिए एक आदर्श महिला की परिकल्पना की है जिसके अनुसार महिलाओं को सुंदर, सहनशील, मृदुभाषिनी आदि गुणों से सुसज्जित यानी एक देवी के रूप में होना अनिवार्य है। क्यों भई महिलाएं न हो गईं नत्थुराम की मूंछें हो गई। कोई पुरुष हमारे विषय में क्या विचार रखता है उससे ज्यादा जरूरी है कि हम अपने विषय में क्या विचार रखते हैं। समय आ गया है जब महिलाएं अपने दैवी स्वरूप से बाहर निकलकर सामान्य मानवी के रूप में प्रस्तुत हों हर गुण- अवगुण हर इच्छा – महत्वाकांक्षा से युक्त एक हाड़ मांस वाली इंसान, जो अपनी पसंद से चाहे तो घर के चार दीवारी के अंदर अपनी दुनिया बसायें या अपनी काबिलियत के अनुसार घर से बाहर निकल कर अपने पसंद के किसी क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित करें, लेकिन हर हाल में अपनी मौलिकता बनायें रखे। न उन्हें देवी बनने की आवश्यकता है न पुरुष बनने की, वे जो हैं उसी रूप में उत्तरोत्तर विकास करें।यह बात सर्वमान्य है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर है, फिर भला ‘विधवा बेचारी’ और ‘विधवा विलाप’ या फिर ‘बांझ’ जैसे शब्द ही क्यों प्रचलित हुए, पुरूषों के प्रति तो ऐसे शब्दों का कोई प्रचलन नहीं है। अब समय आ गया है कि एक ऐसे समाज का निर्माण हो जहां औरत अपने पति को खोने के बाद भी एक सम्मानजनक जीवन जीने की योग्यता रखती हो और लोगों की नजर में एक औरत की जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य बच्चे पैदा करना ही न हो।और समाज का ऐसा नजरिया बनाने में महिलाएं एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकतीं हैं, कम से कम अपने कोख से जन्मे अपने पुत्र जो कालांतर में पुरूष समाज का अभिन्न अंग बनेगा, में अच्छे संस्कार डाल कर।

आजकल सोशल मीडिया पर धावक पी टी ऊषा और हिमादास के चर्चे ज़ोरों पर हैं, बहुत जगह उनकी प्रशंसा में कहे गए शब्दों के साथ यह भी लिखा गया है कि इन्हें किसी फेयरनेस क्रीम की जरूरत नहीं है, मानो उनके रंगरुप को नजरअंदाज कर रहम किया जा रहा है।बहुत पुरानी जमी हुई हुई काई की तरह की यह मानसिकता है, जाते – जाते जाएगी।इन सब बातों पर विमर्श करते हुए सुप्रसिद्ध गजलगो, कवि, लेखक और और फेसबुक के जाने-माने व्यक्तित्व आदरणीय ध्रुव गुप्त की ताजा तरीन पोस्ट की याद आ गई जो बहुत ही प्रासंगिक है’भागो बेटियों, भागो ! घर से नहीं, रिश्तों से नहीं, अपनी ज़िम्मेदारियों से नहीं, एक ग़ुलामी से निकलकर एक दूसरी ग़ुलामी में धंसने के लिए नहीं। भागना अगर है तो ख़ुद को साबित करने के लिए भागो ! नए-नए आकाश छूने के लिए भागो ! हिमा दास की तरह भागो !’

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