डॉ नीता चौबीसा
त्रिदेवो में एक शिव का रूप और महिमा दोनों ही अनुपमेय है।वेदों में शिव को रुद्र के नाम से सम्बोधित क्रिया गया तथा इनकी स्तुति में कई ऋचाएं लिखी गई हैं । सामवेद और यजुर्वेद में शिव-स्तुतियां उपलब्ध हैं। उपनिषदों में भी विशेषकर श्वेताश्वतरोपनिषद में शिव-स्तुति है। वेदों और उपनिषदों के अतिरिक्त शिव की कथा महिमा अन्य कई सनातन ग्रन्थों में मिलती है यथा शिवपुराण, स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में।शिव एकमात्र देव है जो ‘अघोरी’ है।सामान्य अर्थ में ‘अघोरी’ अर्थात ‘जिसके कृत्य असमान्य हो इसलिए उसे घृणित भाव से देखा जाता है।’ शिव का रूप अघोरी रूप है।भारतीय सनातन ग्रंथो के अनुसार शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप सबसे अलग विलग व तनिक जटिल है।अर्धनग्न,बाघम्बर धारी, शरीर पर भस्म भभूत मले, जटाजूटधारी, गले में रुद्राक्ष और सर्पमाला लपेटे, कंठ में विष,ललाट पर चंद्रकला और तृतीयं नेत्र,शीश जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकारी ज्वालाए, मतवाले,नाचते गाते,त्याज्य पुष्पो व वनस्पतियों भांग-धतूरे को धारण करते भगवान शंकर को भिक्षुक भोला भंडारी भी कहते हैं।किन्तु यह अत्यंत विस्मयजन्य तथ्य है कि अघोरी रूप होते हुए भी वे देवो के देव ‘महादेव’ कहलाते है और आदिकाल से ही भारतीयों के सर्वप्रिय देव रहे हैं।इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शिव उत्तर में कैलाश से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक एक जैसे पूजे जाते हैं।उनमें तमाम विपरीतताओ के बावजूद उनका व्यक्तित्व इतना चुम्बबकीय है कि भद्रजनों से लेकर शोषित, वंचित वर्ग तक उन्हें अपना सर्वप्रिय देवता भोलेनाथ मानते हैं। जस्य हैं।
वे प्राचीन काल से ही सर्वहारा वर्ग के देवता रहे हैं उनका दायरा कितना व्यापक है, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है।इसका क्या कारण है?कारण यह है कि हम ‘अघोर’ शब्द का अर्थ ही ठीक से नही समझ पाए है।वास्तविक अर्थो में अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जो हर परिस्थिति में सहज हो ,सम हो जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो।अघोर बनने की पहली शर्त ही यही है कि अपने मन से घृणा और बैर भाव को सदा सदा के लिए निकाल फेंकना। अघोर क्रिया व्यक्तित्व को सहज सरल बनाती है। मूलत: अघोरी उसे ही कहते हैं जो शमशान जैसी भयावह
और विचित्र जगह पर भी उसी सहजता से रह सके जैसे लोग सामान्यतः संसार मे अपने घरों में रहते हैं।शिव श्मशानवासी है वे वहां भी उतने ही सरल ,सहज व प्रसन्न है जितने हम अपने आलीशान सुविधायुक्त घरो में भी नही होते। विषम परिस्थितियों में भी अद्भुत सामंजस्य बिठाने वाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान नहीं है।वो अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजय पाते हैं तो गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं। नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। उग्र होते हैं तो रुद्र, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भंडारी। परम क्रोधी पर परम दयालु भी शिव ही हैं। विषधर नाग और शीतल चंद्रमा दोनों उनके आभूषण हैं। यही शिव का विषम किन्तु अद्भुद साम्न्जस्य है
हिन्दू शास्त्रो में कही कहीं शिव के पांच मुख बताए गए हैं जिसमें से एक मुख का नाम ‘अघोर’ है।इसका एक अन्य आध्यात्मिक अर्थ भी है जिसके अनुसार ‘घोर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘घना’ जो अंधेरे का प्रतीक है और उसमे ‘अ’ उपसर्ग लगने का अर्थ हुआ ‘नहीं’।इस तरह ‘अघोर’ का अर्थ हुआ- ‘जहां कोई अंधेरा नहीं है, हर ओर बस प्रकाश ही प्रकाश है ‘ शिव का यही सबसे तेजोमय प्रकाशस्वरूप रूप ‘अघोरी’ कहलाता है। अघोरी मतलब घने अंधेरे को हटाने वाला ही शिव है। अंधेरे का अर्थ भय भी हो सकता है और भय होता है मूलतः अज्ञान से। इस तरह शिव का यह भयंकर अघोर रूप उस अज्ञान रूपी अंधकार को काट कर भय से मुक्त कराने वाला भी है ।शिव अर्थात अघोरी जो हर घोर अर्थात अंधेरे की तरह दिखने वाले अज्ञान या भय को हटा दे,अतः यही सत्य भी है परम् कल्याणमय भी है और शिव का यह अघोरी रूप सबसे सुंदर भी माना जाता है और इस रूप में शिव अवधूत औघड़ भी कहलाते हैं जो दुनिया से विरक्त, अपनी ही साधना में लीन आत्मा का प्रतीक भी है।प्रायः ब्रह्मा,अपने ब्रह्मलोक में,विष्णु अपने वैकुंठ में रहते बताए गए है पर आदि शिव का प्रिय निवास स्थल निर्जन शून्य कैलाश है।सभी देव प्रायः अपने रास रंग वैभवपूर्ण लोको के स्वामी है किंतु शिव अपनी गृहस्थी अर्धांगिनी शक्ति के साथ निर्जन बर्फ के शून्य प्रदेश कैलाश में भी सहज सरल प्रसन्नतापूर्वक रहते है।शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वो आदि भी हैं और अंत भी है। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं किंतु केवल शिव ही देवो के देव ‘महादेव’ कहलाते हैं। शिव अत्यंत उदार, उत्सव- महोत्सव प्रिय हैं। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की कला मात्र उनके पास है और यही शैव परंपरा भी है।
जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने एकबार कहा था- “उदास परंपरा बीमार समाज बनाती है।”शिव परम्परा अघोर हो कर भी उदास बीमार परम्परा नही है।स्वयं शिव का नृत्य कैलाश पर भी होता है तो शिव का नृत्य श्मशान में भी होता है।श्मशान में उत्सव मनाने वाले भगवान शिव अकेले देवता है। “खेले मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी, भूत, पिशाच, बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी!”वास्तव में देखा जाए तो इन्ही विशेषताओं के कारण आदिकाल से ही भारत मे शिव
आम आदमी के देवता रहें हैं। वे समाज के उस तबके के भी देवता हैं जिन्हें समाज ने अलग-थलग कर रखा है।वह इतने सरल ,सहज व सौम्य है कि केवल भाव देखते है अपने उपासको के गुण या दोष नही।सभी को सम्यक दृष्टि से देखने की यह कला केवल अघोरी शिव के पास है इसलिए केवल मनुष्य और देव ही नही असुरो में भी वह समान रूप से पूजित है और भूत प्रेतों व पशुओ के भी अधिपति है।शिव इतने गुट निरपेक्ष हैं कि सुर और असुर, देव और दानव सबका उनमें विश्वास है और सब पर उनकी सम्यक दृष्टि और कृपावृष्टि होती है।इसका प्रमाण है कि राम और रावण दोनों उनके उपास
क हैं। दोनों गुटों पर उनकी समान कृपा है।आपस में युद्ध से पहले दोनों पक्ष उन्हीं को पूजते हैं।शिव का विराट व्यक्तित्व और कृतित्व हर समय समाज की सड़ी गली बीमार सामाजिक बंदिशों से स्वतन्त्र होने,स्वयं की राह स्वयं बनाने और जीवन के नवीन और सार्थक अर्थ खोजने की चाह में स्वयं भी रहते हैं और हम सभी को भी प्रेरित करते है इसलिए शिव अघोरी हो कर भी भारतीय समाज मे सर्वदा सर्वकालिक सर्वप्रिय और परम् पूज्य देव रहे हैं।(क्रमशः)-शेष भाग अगले अंक में