मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

इसी का नाम ज़िंदगी

——प्रियांशु त्रिपाठी

पापा की थाली में हैं कम दो रोटी

चॉकलेट भी अब कम खाती छोटी

माँ ने तीज में नई साड़ी भी ना ली बेटे ने

जो अपनी लैपटॉप बना ली कल फिर

उसे जो बहाने पसीना

क़स्बे से बाहर दूर दराज जाना था

खर्चें जो होते है

कुछ ज़्यादा वहाँ वहीं

वो आज से थोड़ा बचाना था

भूकभाक बल्ब भी ना बदला गया

सब आँखों से ही काम चला लेंगे

 खुशी तो है बस एक इसी बात की

थोड़ा और बेहतर इसे पढ़ा देंगे

कहाँ बचाये और कहाँ खर्च करे

इसे सोच में राही दिन भर सर्च करे

जहाँ मिले कोई सस्ता आशियाना

और बस तीन वक्त का सादा खाना

मगर शहर में कौन समझे मजबूरीवो

जो मेट्रो की चाल से नापते दूरी रहने का किराया,

 खाने का दाम मानो हो जैसे वो करीब आसमान

करे गुज़ारिश बताकर मजबूरी सबवो शख़्स

गूगल से नंबर छांट कर क्योंकि,

 कोई जाता है बाहर रोटी कमाने

घर की थाली से दो रोटी काँटकर

अब करे वो काम ज़िंदगी,

जिससे हो आसान ज़िंदगीयही सिलसिला है जीने का,

है इसी का नाम ज़िंदगी ।।

LEAVE A RESPONSE

Your email address will not be published. Required fields are marked *