मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

हिंदी भाषा बनाम बिहारी भाषा

ऋचा वर्मा

जब भाषा की बात आती है तो, रेडियर नामक एक जर्मन का कथन कि संस्कृत सौ से भी अधिक भाषाओं की जननी है, हम सब हिंदी भाषियों के रोम-रोम को पुलकित कर देती है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि हिंदी भाषा का भी उद्गम संस्कृत ही है। अंग्रेजी भाषा के बहुत से शब्द जैसे ब्रदर और मदर प्रत्यक्ष रूप से संस्कृत के शब्द क्रमशः भातृ और मातृ से लिए हुए प्रतीत होते हैं, वैसे ही साहित्यिक हिंदी भी संस्कृत के शब्दों के प्रयोग से ही निखर कर आती है। हिंदी भारत ही नहीं वरन विश्व की सर्वाधिक बोलने और समझने वाली भाषा है। भाषा को अगर संकुचित रूप में लिया जाए तो उसे बोली कहा जाता है, हिंदी बोली पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालने अथवा उसके घर में अपनी जगह बनाने वाली दो भाषाएं हैं, एक उर्दू और दूसरी अंग्रेजी।
पहले उर्दू पर आतें हैं, हमारे एक बुजुर्ग थे, विद्यालय में शिक्षक थे, उन्हें सबलोग ‘मौलवी साहब’ कहा करते थे, थोड़ी बड़ी हुई तो, कौतूहल वश पूछ लिया कि हिंदू होकर आपको लोग ‘मौलवी साहब’ क्यों कहते हैं, उनका जवाब था ‘क्योंकि मैं उर्दू का शिक्षक हूँ।’ उर्दू का हमारी जिंदगियों में इस तरह घुल- मिल जाने का मुख्य कारण 900 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम का सिंधु को जीतना, और धीमे-धीमे पूरे भारतवर्ष पर लगभग 800 वर्षों तक मुसलमानों का शासन, उसके बाद अकबर के समय राजा टोडरमल द्वारा फारसी को काम-काज की भाषा बनाया जाना है ,जिसके परिणामस्वरूप हिंदी भाषा पर उर्दू, जिसका उद्गम फारसी भाषा है, का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है।
उसके बाद आई अंग्रेजी, जिसने कुलीन और संभ्रांत बुद्धिजीवियों के मन-मस्तिष्क को इस हद तक प्रभावित किया कि धाराप्रवाह से अंग्रेजी बोलने वाले को अपने- आप ही समाज के उच्च वर्ग के होने तगमा मिलने लगा ।
देश की आजादी के बाद 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित करने के बावजूद भी हिंदी… और वह भी शुद्ध हिंदी अभी तक अपने अस्तित्व के तलाश में है, इसका मुख्य कारण है कि जब भी किसी दूसरी भाषा के शब्दों का हिंदी अनुवाद किया जाता है तब शब्दशः अनुवाद के क्रम में इस हद तक कृत्रिमता आ जाती है कि वह शब्द या वाक्य व्यवहारिक से ज्यादा हास्यास्पद लगने लगता है, रेलगाड़ी का हिंदी अनुवाद, लौहपदगामिनी, भला किसके होठों पर मुस्कुराहट नहीं लाएगा? एक और मजेदार बात याद आ गई, तब मैं स्कूल में थी, और हमलोगों के बीच एक पत्र की लेखन शैली मजाक का विषय बना हुआ था, एक आदमी का सर एक लोहे के खंभे से टकरा गया, और बहुत खून बह गया था। उसने अपने घर वालों को लिखे पत्र में कुछ इस तरह से सूचित किया, ‘विगत दिनों द्विचक्र वाहिनी के परिचालन के क्रम में संतुलन खो जाने के कारण मेरा सर एक लौह धातु से निर्मित खंभ से टकरा गया, परिणामस्वरूप गहरा आघात लगा और रक्त की अविरल धारा बह निकली तदुपरांत मैं मूर्छित हो गया।’ अब इस घटना का वर्णन अगर आम बोलचाल की भाषा में किया जाता तो वह ज्यादा असरदार होता परंतु भाषा की शुद्धता ने इसे हास्यास्पद बना दिया, जिसका मूल कारण हमारी उर्दू और अंग्रेजी मिश्रित बोली है जिसके कारण हम इतने ऊंचे दर्जे की हिंदी को आत्मसात ही नहीं कर पाते हैं।
अब मूल विषय पर आते हैं… बिहारी बोली और हिंदी भाषा। बोली का मतलब, ज्यादातर ग्रामीण परिवेश में बोली जाने वाली भाषा से लिया जाता है, जिसे लोग अपनी जिह्वा के ग्राह्य शक्ति और प्रवाह के अनुरूप ढ़ाल लेतें हैं, जिसके कारण उस बोली में देशज और तद्भव शब्द का बाहुल्य होता है। लेकिन अगर ध्यान दिया जाए तो बोली का संबंध केवल ग्रामीण परिवेश के लोगों से ही नहीं है, बल्कि शहरी, संभ्रांत लोगों की भी एक बोली होती है.. अंग्रेजी मिश्रित हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जाता है।इसके अलावा हिंदी की छोटी बहन उर्दू अपनी तहजीब लिए आमलोगों की भाषा में समाई ही हुई है।
वैसे तो बिहार को एक पिछड़ा प्रदेश समझने की होड़ सी लगी रहती है, अन्य प्रदेशों के लोग बिहारियों को गंवार कहतें हैं, बावजूद इस तथ्य के, कि बिहारी प्रतिभा कई क्षेत्रों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का सबूत देती रही है। ।इसके अलावा यहां की सांस्कृतिक परम्परा भी अत्यंत ही समृद्ध रही है। ‘कोस – कोस पर पानी बदले और चार कोस पर वाणी’ के कहावत को चरितार्थ करते हुए बिहार में अनेक बोलियां बोली जाती हैं। भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका और वज्जिका जैसी बोली को अपने आंचल में समेटे बिहार की भूमि, साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत उर्वरक रही है।मिथिलांचल के विद्यापति, सारण के भिखारी ठाकुर, हिंदी के रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, भला इनसे कौन सा हिंदी साहित्य प्रेमी परिचित नहीं होगा।
लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार के आम बोलचाल की भाषा पर यहाँ के क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव बोलने वाले के लहजे पर पड़ता है कभी-कभी व्यक्ति विशेष द्वारा उसकी अपनी शैली में बोले जाने पर, यह सुनने वालों को गुदगुदा देता है। यहां के लोगों में एक खूबी और होती है किसी भी भाषा का शब्द वे उसे अपनी जिह्वा और लहजे के अनुरूप ढाल देतें हैं। इसका एक बहुत ही ज्वलंत और रोचक उदाहरण है ‘गिरमिटिया मजदूर’, 19 वी सदी के पूर्वार्ध में बिहार के छपरा, आरा और गया से ब्रिटिश सरकार के पहल पर बहुत से मजदूरों को एग्रीमेंट कराकर पानी के जहाज से माॅरीशस भेजा गया, बंधुआ मजदूर के तौर पर, गन्ने की खेती के लिए, कालांतर में इन्हीं मजदूरों की संतानों ने मिलकर माॅरीशस को एक समृद्ध राष्ट्र बनाया, पर अपनी सभ्यता संस्कृति को अक्षुण्ण रखा, फ्रेंच, अंग्रेज़ी के साथ वहाँ के लोग भोजपुरी भी बोलते हैं और एग्रीमेंट पर ले जाये गये बंधुआ मजदूर के संदर्भ में बात करते हुए उन्हें ‘गिरमिटिया मजदूर’ कहकर संबोधित करते हैं, मतलब कि एग्रीमेंट हो गया गिरमिट । उसी प्रकार बिहार के लोग एफिडेविट को हाफीडीफी टिफिन कैरियर को टिपकारी बोलते हैं। हद तो तब हो जाती है जब यहां के अनपढ़ लोग भी अपने बच्चे के लिए ‘मैथ बुक’ खरीदते हैं और ‘प्रुफ’ बोलने की कोशिश में ‘पुरूख’ बोल जातें हैं ,कालांतर में पढें – लिखे लोगों के जबानों पर भी ये शब्द चढ़ जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी ही नहीं बहुत सारे उर्दू शब्दों को भी बदल दिया गया है। कार्यालय में काम करने वाले कर्मी एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि फलां आदमी साहब का खरखांह है, ध्यान से सोचने पर पता चलता है कि यह ‘खैरख्वाह’ शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। हमारे पटना में एक जगह है जिसको खोजा इमली कहा जाता है। यहां भी खोजा शब्द ‘ख्वाजा’ का ही बिगड़ा हुआ रूप है।
इस तरह की खिचड़ी बोली की हम आलोचना तो कर सकते हैं, पर इसके प्रसार को रोक नहीं सकते, क्योंकि, हर प्रदेश के लोग अपनी सुविधानुसार नये शब्दों को गढ़ कर, अपने लहजे में ही बोलेंगे। इन सब विषम परिस्थितियों के बीच हिंदी भाषा के सृजन कर्मियों के कंधे पर यह जिम्मेदारी आ जाती है कि, वे वर्तनी और व्याकरण की शुद्धता पर ध्यान देते हुए हिंदी भाषा की गरिमा को बनाए रखें।

 

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