“प्राचीन भारतीय राजनय और वृहतर भारत की गौरवगाथा” (भाग ५)

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प्राचीन भारतीय राजनय का प्रमुख आधार कौटिल्य का अर्थशास्त्र,मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे गर्न्थो पर टिकी थी जो आज भी भारतीय राजनीति के आधारस्तंभ माने जाते है।प्रायः सभी भारतीय राजनीतिक विचारकों-कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओ के कर्तव्यों और अन्य राष्ट्रों से सम्बध स्थापित करने की नीति का वर्णन किया है।वेद, पुराण, रामायण, महाभारत,कामन्दक के नीति शास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र,शुक्रनीति, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण प्राचीन भारतीय वैदेशिक सम्बन्धो का भी विवेचन करते है। भारतीय राजशास्त्र के चार प्रसिद्ध आधारभूत सिद्धान्त साम, दान, दण्ड और भेद राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को, प्राचीनकाल की भाँति आज भी निर्धारित करते हैं।इन्हें नीतिशास्त्र में ‘चतुर्पद’ कहा गया है। राजनय के क्षेत्र में कौटिल्य का महान् योगदान है। वास्तव में कौटिल्य और राजनय पर्यायवाची हैं।
कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र भारतीय राजनय और वैदेशिक नीति का प्रथम प्रामाणिक ग्रन्थ है।कौटिल्य द्वारा राजनय के उपयोग के सात तत्व बताए गए- स्वामी, आमात्य, जनपद्, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र। भारतीय राजनय के इतिहास में कौटिल्य की माण्डलिक व्यवस्था यथार्थवाद की द्योतक है। वैदेशिक नीति का संचालन षाड्गुण्य सिद्धान्त के अनुसार चलता था। कौटिल्य के अनुसार-विदेश नीति का मूल उद्देश्य राजा द्वारा सर्वोच्च शक्ति प्राप्त कर अपने शत्रु को उससे वंचित करना होता है और इस हेतु जो नीति निर्देशित की गई है वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। उनके अनुसार राजदूत का मूल कार्य दो राज्यों के मध्य शान्तिपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखना था। कौटिल्य ने दूत के दो प्रकार के कार्यों का उल्लेख किया है- प्रथम, शान्तिकालीन कार्य, द्वितीय संकटकालीन कार्य ,जो आज भी सम्पूर्ण विश्व की राजनीति की गाइड लाइन व धरोहर है। कौटिल्य ने बताया है कि गुप्तचरों को कापालिक, भिक्षु, व्यापारी आदि के रूप में विदेशों में रहकर सूचनायें प्राप्त करनी चाहिये। ये पराई धरती पर रहते हुए राष्ट्र हित मे सन्धि ,विग्रह आदि कार्य भी करते थे।संधियों का आधार मण्डल सिद्धान्त को, अर्थात् अपने पड़ोसी के साथ शत्रुता हो तो पड़ोसी के पड़ोसी के साथ मित्रता का व्यवहार अपेक्षित था।इसलिए प्राचीन ग्रंथ किरातार्जुनीयम् में दूत को राजा का नेत्र माना गया है तथा उसे परामर्श दिया गया है कि उसे राजा को धोखा नही देना चाहिये। मनु स्मृति का मौलिक सिद्धान्तषाड्गुण्य मंत्र है, जिसमें वह राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श देता है,जो वर्तमान सन्दर्भ में भी उपयोगी है।इन्ही दिशानिर्देशों और नीतियों पर चल कर प्राचीन भारत ने वैदेशिक सम्बन्धो का इस तरह निरूपण किया कि वृहत्तर भारत की विजय पताका दसो दिशाओं में फहरा उठी।
प्राचीनतम संदर्भो में वृहत्तर भारत का निर्माण :
प्राचीनतम गंथ ऋग्वेद में समुद्र और उसमें चलनी वाली नावों के संदर्भ से ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वज भौगोलिक सीमाओं से परिचित रहे है। पौराणिक काल में अग्नि पुराण में जम्बू द्वीप अर्थात भारत का द्वीपांतरो के साथ संबंधो का उल्लेख हुआ है। महाकाव्य कालीन संस्कृति में रामायण में लंका के साथ युद्ध कर राम द्वारा लंका में सांस्कृतिक उपनिवेश की स्थापना की बात से हम सभी परिचित है। इसके अलावा बौद्ध ग्रंथो में फाह्यान व हवेनसाग के यात्रा विवरणों मध्य एशिया व दक्षिणी-पूर्वी एशिया से प्राप्त प्राचिन अभिलेखों व पाण्डुलिपियों, समुद्र गुप्त की प्रयागप्रशस्ति से और यूनानी ग्रंथ पेरीप्लस आॅफ दि एरिथ्रीमन सी, कथासरितसागर, टोलेमी की जियोग्राफी, बौद्वजातक ग्रंथो से पता चलता है कि प्राचीन भारत के विदेशो से गहरे एवं घनिष्ठ संबंध रहे है। ये संबंध आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक कारणों से दृष्टव्य होते है। प्राचीन भारत के वैदेशिक संबंधो की स्थापना में व्यापारियों, शिक्षकों, राजदूतो और धर्मप्रचारकों का महती योगदान रहा क्योकि इन्ही के माध्यम से भारतीय अपना परचम हिन्दूकुश व पामीर की शीतल दुर्भेदयता और अरब सागर, बंगाल की खाड़ी व हिन्द महासागर की अतल गहराईयों को लांघ कर विदेशो में फहराने में सफल हो सके। प्राचीन भारत के वैदेशिक संबंधों के पुरातात्विक साक्ष्य सिंधु सरस्वती सभ्यता में भी दृष्टव्य होते है। सिंधुवासियों का पश्चिम एशिया से व्यापारिक संबंध स्थल मार्ग द्वारा एवं मिश्र से संबंध जलमार्ग द्वारा रहा। कितने ही बन्दरगाहो और स्थलों से इस व्यापारिक वाणिज्यीक संबंधोंकी पुष्टि होती है चिनान्शुक की लोकप्रियता और भारत चीन के वाणिज्यिक संबंधो का साक्षी रहा हैं प्राचीन सिल्क (रेशम) मार्ग द्विपक्षीय भारतीय चीनी व्यापारियों के आकर्षण का केन्द्र रहा। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य के साथ दृढ़ व्यापारीक संबंध रहे। भारत के व्यापारी चीन से शुरु कर नील के मुहाने स्थित अलेक्जेण्ड़िया तक आते जाते रहते थे। महाभारत और मनुस्मृति में चीनी का उल्लेख तथा कोटिल्य अर्थशास्त्र में चीनी सिल्क का विवरण भारत-चीन के सुदृढ़ व्यावसायिक संबंधो का परिचायक हैं। बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा की समृद्धि से आकृष्ट होकर अनेक साहसी महत्वाकांक्षी भारतीय धर्नाजन हेतु वहां जाया करते थे अतः इन प्रदेशों का नाम सुवर्णभूमि कहा गया जिसका उल्लेख जातक ग्रंथो में प्रचुरता से किया गया है। ये व्यापारी जहां कही भी जाते अपनी भारतीय संस्कृति की अमिट छाप छोड़ कर आते थे यहीं कारण है कि इन प्रदेशों के कई बार नाम ही भारतीय नामों पर आधारित रखे गये जैसे चम्पा, द्वारावती। व्यापारियों द्वारा उत्र्कीण कराये गये अभिलेख मलाया के वन्जली जिले में मिले है जिससे
चैथी सदी में भारत मलाया व्यापारिक संबंध का परिचय प्राप्त होता है। इस अभिलेख को बुध गुप्त नामक भारतीय नाविक ने लिखवाया था। यूनानी ग्रंथ पेरिप्लस के अनुसार अनके भारतीय व्यापारिक दृष्ट्रिकोण से अरबसागर के कुछ द्विपों में बस गये। सर्वप्रथम मोर्य शासक चन्द्रगुप्त मोर्य द्वारा युनानी राजकुमारी हेलना से विवाह कर वेदेशिक संबंधों की शुरुआत का रौचक इतिहास मिलता है जिसके परिणामस्वरुप युनान से राजदूत के रुप में मेगस्थनीज का आगमन भारतीय इतिहास में वर्णित है। भारत के कुछ साहसी शासको और राज कुमारों ने विदेशो में भारत के उपनिवेश भी स्थापित किये समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में सर्वद्वीप समूह का उल्लेख मिलता है
जिससे गुप्तयुगीन भारत का विदेशी संबंध प्रमाणित होता है। कनिष्क ने खोतान व चीनी तुर्किस्तान को अपना उपनिवेश बताया था। जहां कालान्तर में दीर्घ अवधि तक भारतीय संस्कृति का प्रभाव बना रहा। साहसी ब्राह्मण कौडिण्य के नेतृत्व में बहुत से भारतीय सुवर्ण भूमि में गये और वहां उन्होने उपनिवेश की स्थापना की जो चीनी इतिहास में फूनान या कम्बोडिया नाम से सुविख्यात हुआ।(क्रमशः)

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