मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

दाम्पत्य जीवन और कामकाजी महिलाएं

प्रेमलता सिंह, पटना,

आज के दौर में महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से कदम- से -कदम मिलाकर चलने के लिए तत्पर रहती है। बदलते वक़्त में महिलाएं आर्थिक, शैक्षिक और समाजिक रूप से सशक्त है।

आज भी कुछ महिलाओं के जीवन में सुधार हुआ है पर आज भी ज्यादातर महिलाएं हर क्षेत्र में पिछड़ी हुई हैं।

आज के दौर में कानून, शिक्षा, स्वरोजगार, प्रशिक्षण , चिकित्सा, पत्रकारिता व इंजिनियरिंग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रही है।

दफ्तर में काम का बोझ के साथ साथ घर की देखभाल, बच्चों की जिम्मेदारी भी बखूबी  ढंग से निभा रही हैं। ये बोल नहीं पाती पर इनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

इस आधुनिक युग में भी खाना बनाना, घर की देखभाल की जिम्मेदारी महिलाओं का काम समझा जाता है। इस तरह से महिलाओं को दोहरी भूमिका अदा करना इनकी मजबूरी बन गई हैं।

सात -आठ घंटे दफ्तर का काम, एक- दो घंटा आटो , रेलगाड़ी और बस में ढका खाना और घर पहुंचते घर का काम काम-काज। कभी -कभी इन सभी कामों में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है।

अक्सर समाज में देखा जाता है बच्चा पैदा होने के बाद बच्चों के लालन-पालन करने के लिए महिलाएं नौकरी भी छोड़ने को मजबूर हो जाती है। काम के बोझ के कारण महिलाएं पीठ दर्द, मोटापा, अवसाद, उच्च रक्तचाप, थकान जैसी बिमारियों से ग्रसित हो जाती है।

ऐसा भी देखा जाता है कि महिलाएं पति और बच्चों को पौष्टिक आहार खिला देती है और खुद पौष्टिक आहार नहीं लेती है।फल और सब्जियों का उपयोग कम करती है। जिससे इनके सेहत पर बुरा असर पड़ता है।

कुछ महिलाएं दफ्तर और कामों के कारण खुद के लिए समय नहीं निकाल पाती है और नहीं व्यायाम कर पाते हैं।

देखा जाए तो अपनी स्थिति की जिम्मेदार  वो खुद है। खुद के प्रति गैरजिम्मेदार और घर  -परिवार को पहले प्रथमिकता देती है।

जिस घर में महिलाओं के कामों में कोई हाथ बटाता है, वो महिला बाकि महिलाओं से बेहतर महसूस करती है।एक स्वस्थ महिला ही स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती है।

इसलिए अपने घर की महिलाओं को तनावमुक्त और काम की बोझ से मुक्त रखना  उनके परिवार की जिम्मेदारी बनता है।

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