अवधूत शिव की अर्चना” (भाग ३) ‘नटराज राज नमो नमः..!’

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डॉ नीता चौबीसा ,
भगवान शिव को सामान्यतः संहार का देवता माना जाता है किंतु भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों रूपो के लिए विख्यात हैं। शिव आदिदेव अर्थात स्वयंभू या self born है।न उनका आदि है न ही अंत।इस रूप में वह परम चरम तेजोमय है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।इसलिए उनके अनेक नाम मिलते है व कई रूपो में पूजे भी जाते है।इन्ही में से एक लोकप्रिय रूप है नटराज शिव की अर्चना।नटराज शिवजी का एक नाम है उस रूप में जिस में वह सबसे उत्तम नर्तक हैं और नृत्य और नाट्यशास्त्र के आदिदेव भी माने जाते है।नटराज शिव का स्वरूप न केवल उनके संपूर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है अपितु यह सत्य भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण्ड में स्थित सारा जीवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शून्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहित है। नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट अर्थात कलाए और राज अर्थात राजा। इस स्वरूप में शिव समस्त कलाओं के आदिस्रोत, प्रणेता और स्वामी हैं।शिव का तांडव नृत्य सनातन धर्म में प्रसिद्ध है।
शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं। पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलयकारी रौद्र तांडव तथा दूसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव। पर अधिकतर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय ही मानते हैं। रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टि का विलय या प्रलय हो जाता है। शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भांति अत्यंत सम्मोहक तथा अनेक गम्भीर आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्याख्याएँ लिए हुए हैं।नटराज शिव का वर्णन स्कन्दपुराण,
शिवपुराण,भरतमुनि की नाट्यशास्त्र,महेश्वर सूत्र
व विभिन्न आगम शास्त्रो आदि में मिलता है।देवी या शिव के द्वारा जो प्रोक्त है उसी विशिष्ट शास्त्र का नाम आगम या तंत्र है| मूलतः शिव अखिल सृष्टिं के देवता है।ऋग्वेद व शुक्ल यजुर्वेद की रुद्राष्टाध्यायी के पंचम अध्याय में शिव को समस्त सृष्टि के रचयिता रूप या सकल सृष्टि शिवमय मान कर ही उनकी स्तुति की गई है।हालांकि इसमें उनका आरम्भिक प्रचलित नाम रुद्र मिलता है।परंतु समस्त प्रकृति के अधिष्ठाता देव शिव को ही माना गया है।वस्तुतः प्रचलित मान्यताओ में शिव के नटराज रूप की अवधारणा को लोग दक्षिण भारत से आया मानते है।किंतु ऐसा नही है जैसाकि ऊपर बताया इसके पौराणिक सन्दर्भ व कथाए भारतीय वाङ्गमय में यत्र तत्र बिखरी पड़ी है।शिव के नटराज स्वरूप के उत्पत्ति संबंधी दो मान्यताएं चर्चित हैं। पहली धारणा दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य में आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच इसके विकास को निरूपित करती है जबकि दूसरी धारणा के अनुसार इसका विकास पल्लव साम्राज्य के तहत सातवीं शताब्दी के आसपास हुआ।किंतु दूसरी धारणा अधिक प्रामाणिक लगती है।क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से नटराज शिव की चिदंबरम स्थित भव्य मूर्ति का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसको योगसूत्र के प्रणेता ऋषि पतंजलि ने बनवाया था। इस मूर्ति को पतंजलि ने योगेश्वर शिव के रूप में निरूपित किया जिसके गहन और बेहद व्यापक अर्थ है। शिव की वंदना करते हुए महर्षि पतंजलि ने वर्तमान में बहुप्रचलित “नटराज राज नमो नमः” अर्थात “नटराज स्तोत्र ” के रचना भी की थी। शिव सभी कलाओं के राजा है। संसार में ध्वनि की उत्पत्ति भी उनसे हुई है और शिव उन ध्वनियों से भी परे हैं।इसीलिए उन्हें भैरव भी कहा जाता है।लेकिन इससे भी इतर यह बात विचारणीय है कि पुराणों में नटराज शिव के तांडव की कथाए सतीप्रसंग,पार्वतीविवाह,आदि योगी शिव को सम्पूर्ण समाधिस्थ होने की कितनी ही पौराणिक कथाओं में वर्णित हुई है अतः अवधूत शिव का नटराज रूप भी उतना ही प्राचीन है जितने की उनके और रूप है।इसका एक पुख्ता प्रमाण इस तथ्य में भी निहित है कि अवधूत शिव के परम भक्त महाबली लंकापति दशानन ने जब कैलाश को लंका ले जाने की कोशिश की थी तब उसके अहंकार का मर्दन कर शिव ने उसे परास्त कर दिया और उसका एक हाथ नीचे दब गया जिससे असहनीय पीड़ा से कहराते हुए उसने शिव तांडव स्त्रोत की रचना की थी और इसके फलस्वरूप शिव ने उसे रावण नाम दिया था।इसका अर्थ यह है कि रामायण काल मे भी शिव के तांडव और नटराज रूप की पूजा होती रही है।वास्तव में शिव दो तरह से तांडव नृत्य करते है। शिव महा पुराण में शिव का संगीत के प्रति स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।संगीत प्रकृति के हर कण में मौजूद है। भगवान शिव को ‘संगीत का जनक’ माना जाता है। शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था, क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए हैं।शिव दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं,उसे रौद्र-तांडव कहते है ।यह विनाश व प्रलय का प्रतीक है।इसमें शिव रुद्र रूप होते है और तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं। किन्तु दूसरे तांडव नृत्य करते समय जब, वह डमरू भी बजाते हैं तो वह पूरी तरह आनंदित होते है जिससे सम्पूर्ण प्रकृति व सृष्टि आनंद व सृजनशील हो जाती है।इसलिए इसे आनंद तांडव कहते है। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। इसलिए शिव का तांडव एकसाथ सृजन और विनाश दोनों की प्रक्रिया है ।दोनों ही उनके तांडव के प्रकार व भाव पर निर्भर करते है।उनके रौद्र तांडव रूप शिव को रुद्र और आनंद तांडव रूप शिव को नटराज कहा जाता है जो अनेक कलाओ के जन्मदाता के रूप में प्रसिद्ध है।वस्तुतःआनद तांडव और रौद्र तांडव का यह भेद आप पतंजलि रचित ‘नटराज स्तुति’ और रावण विरचित ‘शिव तांडव स्त्रोत ‘ के शाब्दिक विन्यास व उच्चारण की शैली से भी समझ सकते है। नटराज स्त्रोत शांत व सौम्य है जबकि रावण का तांडव स्त्रोत बोलने में अत्यंत जटिल अभ्यास की आवश्यकता होती है।इसी तरह लास्य शक्तिरूपा शिवांगी द्वारा शिव के तांडव के समानांतर किया जाने वाला एक नृत्य है।माँ शिवांगी रुद्र तांडव को शांत कर उन्हें सृष्टि के पुनर्निर्माण के लिए प्रेरित करती है और इस हेतु लास्य नृत्य का प्रयोजन है। शैव मत में तांडव-लास्य का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण विवरण हमें देखने को मिलता है।किन्तु जब शिव शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं।नाद और भगवान शिव का अटूट संबंध है। दरअसल नाद एक ऐसी ध्वनि है जिसे ‘ॐ’ कहा जाता है। पौराणिक मत है कि ‘ॐ” से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है। संगीत के सात स्वर तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं। नाद से ही ‘ध्वनि’ और ध्वनि से ही ‘वाणी की उत्पत्ति’ हुई है। शिव का डमरू ‘नाद-साधना’ का प्रतीक माना गया है।पौराणिक मान्यता है कि यह नृत्य शिव के तांडव के समानार्थ ही प्रस्तुत किया गया था। वस्तुतः यह शिव और शिवा का महालास्य सृष्टि में प्रेम, सौंदर्य, ख़ुशी,काम और अनुग्रह,सृजन,विस्तार आदि ले कर आता है।सम्पूर्ण सृष्टिं इसी प्रेमपूर्ण शिव शिवांगी के महालास्य ji के परिहास का प्रसाद है जिसका प्रकटीकरण अवधूत शिव के नटराज रूप में होता है।तांडव समस्त जजर्र पुरातनताओ,नकारात्मकताओ के विन्ध्वन्स और विनाश की प्रक्रिया है।सृष्टि में दोनों अविरल साथ साथ चलती रहती है।शिव अविभाजित चैतन्य हैं जिनमें दोनों ही – रौद्र व आनंद एकसाथ प्रकट हो रहे हैं, जिस तरह किसी शांत झील में लहरें पैदा हो रही हों। यह संसार ही इन दोनों तांडव-लास्य की अभिव्यक्ति है। यहां प्रतिपल सृजन चलता रहता है, साथ ही विनाश भी। इस संसार और सम्पूर्ण ब्रह्मांड की पृष्ठभूमि हैं। (क्रमशः)

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