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सच हार नही सकता

सम्पादकीय

अब सारे सांसदों और विधायकों के बेलगाम बोल पर तगड़ा लगाम लग जाएगा

अब सारे सांसदों और विधायकों के बेलगाम बोल पर तगड़ा लगाम लग जाएगा

  

के. विक्रम राव

राष्ट्रीय अध्यक्ष

इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्टस (आईएफडब्ल्यूजे)

 

  अब सारे सांसदों और विधायकों के बेलगाम बोल पर तगड़ा लगाम लग जाएगा। राहुल गांधी की सांसदी खत्म कर यह चेतावनी स्पष्ट और कारगर हो गई। मनमर्जी और हलकेपन का अंत कर, वाक-गांभीर्य अब सर्वमान्य और ग्राह्य बनेगा। “हर मोदी उपनामवाला भ्रष्ट होता क्यों हैं”, पूछा था राहुल ने एक चुनावी सभा में। नरेंद्र मोदी पर घिनौना हमला था। सूरत के सीजेएम साहब ने राहुल पर बड़ी दया दिखाई। राहुल के वकील किरीट पानवाला ने हल्की-फुल्की सजा के लिए मिन्नत की थी। तभी जज हरीश वर्मा कानूनन इस पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष की लोकसभा मेंबरी रद्द कर सकते थे। छोड़ दिया। उच्चतम न्यायालय ने जनप्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 8(4) को कांग्रेस राज के दौर (10 जुलाई 2013) में असंवैधानिक कर दिया था। पहले इस धारा के अनुसार सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों की सदस्यता बरकरार भी रह सकती थी। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों ने “लिली थॉमस बनाम भारत सरकार” वाली याचिका पर सांसदी तथा विधायकी तत्काल खत्म करने का निर्देश दिया था। कानूनन राहुल गांधी कल संध्या से ही “भूतपूर्व सांसद” बन गए थे।

    उत्तर प्रदेश विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप शुक्ल ने इस संवाददाता को आज बताया कि यूपी विधानसभा के दो सदस्यों की भी मेंबरी तत्काल खत्म कर दी गई थी। अब्दुल्ला आजम खान समाजवादी पार्टी के रामपुर से विधायक थे और भाजपा के विक्रम सैनी खतौली से। दोनों को अदालत द्वारा दो साल की सजा होने पर तत्काल निकाल दिया गया था।
याद करें कि इसके पूर्व सर्वोच्च न्यायालय में राहुल क्षमायाचना कर चुके हैं। तभी न्यायालय ने उन्हें सचेत किया था कि “चौकीदार चोर” वाली सतही आलोचना पर खेद व्यक्त करें। तब अदालत में राहुल गिड़गिड़ाये थे। फिर वही अपराध दोबारा किया। नतीजन सजा पाई। लोकसभा से बाहर हो गए। वायनाड में इस बार उपचुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से उनका मुकाबला होगा। इस परिवेश में स्मरणीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल गांधी की (14 नवंबर 2019) से क्षमायाचना स्वीकृति और उन्हें सावधान किया था उनकी मोदी-विरोधी युक्ति पर कि “चौकीदार चोर है” अपमानजनक है। सूरत के जज ने इसी तथ्य को भी स्पष्ट तथा दर्ज भी किया। इतिहास ने आज अपने को दुहराया है। राहुल गांधी की दादी (इंदिरा गांधी) की भी लोकसभाई सदस्यता 1978 में निरस्त की गई थी। रायबरेली से हारने के बाद वे चिकमगलूर (कर्नाटक) से लोकसभा का उपचुनाव जीतीं थीं। उनपर  सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का आरोप लगा था। निष्कासन वाला यह प्रस्तावित तब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सदन में पेश किया था। बहुमत से पारित हुआ था।

   इस पूर्व-कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में इतना और गमनीय है कि एक वरिष्ठ, जानामाना, सत्ता पर सालों रहा नेता इतनी गैरजिम्मेदारी वाला सार्वजनिक बयान दे सकता है ? उन्हीं के शब्दों में “सभी मोदी उपनाम वाले भ्रष्ट क्यों होते हैं ?” तो मूलभूत सवाल आता है कि राहुल गांधी का उपनाम “गांधी” हो ही नहीं सकता। उनके दादा (राजीव गांधी के पिता और इंदिरा गांधी के पति) फिरोज “घांडी” सूरत के पारसी थे। उनके पूर्वज ईरान से गुजरात भागकर आए थे। तब इस्लाम ने ईरान का आर्य धर्म नष्ट कर दिया था। अब अग्नि के उपासक इस मांसाहारी “घांडी” ने अपने उपनाम की वर्तनी फर्जी तरीके से परिवर्तित कर दी। वे गांधी बन गए। बापू से रिश्ता दर्शाना ही मकसद था। नैतिकता का तकाजा है कि राहुल अपना उपनाम “घांडी” लिखते, न कि गांधी।

     गनीमत रही कि राहुल गांधी को जब कल (23 मार्च 2023) जेल की सजा सूरत की कोर्ट ने सुनाई तो देश में सोनिया-कांग्रेस की सरकार नहीं थी। वर्ना क्या हो जाता ? राष्ट्र में आपातकाल घोषित हो जाता। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट हरीश हसमुखभाई वर्मा पर सीबीआई बैठा दी जाती। रातों-रात मीडिया घरों की बिजली काट दी जाती। प्रेस सेंसरशिप थोप दिया जाता। आजादी से चहकते, मटकते रिपोर्टरों को घर में अथवा कारागार में नजरबंद कर दिया जाता। पुलिस को कोरे वारंट (गिरफ्तारी के) दे दिए जाते। सिर्फ नाम भरना पड़ता। संसद गूंगी बना दी जाती। प्रश्नकाल खत्म कर दिया जाता। अतीक, मुख्तार आदि को कांग्रेस का सदस्य बना दिया जाता ताकि आलोचकों को ठोक सकें। मीसा कानून फिर रच कर बिना जमानत के जेल भेज दिया जाता। हाई कोर्ट को प्रतिबंधित कर दिया जाता कि वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कानून पर याचिकायें नहीं सुनें। जो बोले सो वो जेल में। अर्थात कुल मिलाकर देश पर एक अकेली पार्टी का राज लाद दिया जाता। ऐसा 1975-77 में हो चुका है।

आकाशवाणी को सोनियावाणी बना दिया जाता। काका संजय गांधी की तरह केवल युवराज राहुल गांधी का सिक्का ही दिल्ली में चलता। उन्हीं के नाम पर खुत्बा पढ़ा जाता।

   उपरोक्त सारे कदम इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को उठाए थे। सिर्फ अटल बिहारी वाजपेई लंबे पैरोल पर थे। शेष सभी विरोधी जन, इस पत्रकार को मिलाकर, सीखचों के पीछे थे। बैंगलौर में कैदी तब मैं था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दत्तात्रेय होसबोले भी। जिन कैदियों ने माफीनामा पर दस्तखत किए या कांग्रेस का सदस्यता फार्म भरा हो उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया गया था। आज भारत बच गया, उसी अधिनायकवाद की  पुनरावृति से।

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