—–नीरव समदर्शी
जानता हूँ मैं कि जो झुकता नहीं है
वह टूट जाता है|
जानता हूँ मैं जो जितना झुकता है उतना ही उठता है
मगर क्या करूं मैं अपनी इस रीढ़ की हड्डी का,
जो लोहे सा सख्त है|
चाहता हूं मैं बहुत-बहुत झुकना|
चाहता हूँ मैं बहुत ऊपर उठना|
मगर क्या करूँ मै अपनेलोहे से भी सख्त इस रीढ़ की हड्डी का|
मानता हूं मैं मुझे टूटना ही होगा…
टूटकर गिरना ही होगा|
चाहता हूं मैं अगर टूटना ही है
तो टूटूं, गिरूं और बिखरकर समा जाऊं ,
गोद में माटी की,
फिर से उठकर फैल जाने के लिए सीमा तक क्षितिज के….