लघुकथा की व्यथा

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डाॅ पुष्पा जमुआर, पटना,

“कथा साहित्य सबसे प्रचीन विधा है ।हिन्दी साहित्य में कथा साहित्य मानव सभ्यता के आदिम काल से ही है ।परन्तु लघुकथा का अस्तित्व वैदिक काल से ही माना जाता रहा है ।हालांकि वैदिक काल की पौराणिक कथाओं में छोटी -छोटी कथाएं लघुकथा के रूप मे जाने नहीं जाते थे ।इन कथाओं को दृष्टांतों के रूप में जाने जाते रहे हैं ।जैसे -ईसप की कहानियाँ, पंचतंत्रों की  कथाएं, वेदों की ऋचाएं , उपनिषदों , हितोपदेश, जैन, बौध्द साहित्य की छोटी-छोटी कथाएं इत्यादि लघुकथा न होते हुए भी लघुकथा की परिधि में तो आते हीं हैं।अतः यह मान लिया गया है कि कुछ भी हो इन रचनाओं में लघुकथा सृजन के बीज अवश्य हीं है ।“

“किसी भी विधा को जानने हेतु अतीत में झांकना जरूरी होता है ।अतः लघुकथा लेखन की विस्तृत प्रतिक्रिया की जानकारी हेतु अतीत में झांकना जरूरी हीं है।तभी यह जाना जा सकता है कि “वस्तुतः लघुकथा क्या है? “अतएव लघुकथा के मानक फ़लक पर चर्चा हेतु  कुछ बिन्दुओं पर दृष्टि डालनी जरूरी है।

“लघुकथा वस्तुतः क्या है? “–सर्वे प्रथम तो यह जानकारी हो कि “लघुकथा  वस्तुतः क्या है? “-लघुकथा वस्तुतः स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है ।जिस में क्षण विशेष में मन के भीतर अथवा बाहर जो घटनाएँ घटती है लघुकथा का प्लॉट बनती है ।फिर उसे अंतर्वस्तु के रूप में मानवोत्थानिक विचार से समृद्ध किया जाता है ।तब सटीक शिल्प से उसे प्रस्तुत कर दिया जाता है ।और तब ऐसी लघुकथा श्रेष्ठ लघुकथा की सुची  में आने की हक़दार बन जाती है ।रचना के सृजन हेतु मुख्यतः दो तत्वों का हीं उपयोग है ।पहला -विषयवस्तु, और दूसरा -शिल्प ।विषयवस्तु यानि कथा लेखन में कथानक और शिल्प यानि रचना की शरीर। लघुकथा सृजन में सर्वप्रथम एक इक़हरा कथानक की ज़रूरत होती है ।जो क्षण भर की अभिव्यक्ति होते हुए सीमित सीमा की हो।फ़ालतू शब्दों का उपयोग लघुकथा को कमजोर बनाती है ।यह अपनी तीखी धारा से मारक प्रहार करती है ।शीर्षक की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पाठक को चरमविंदु पर पहुंचाने की क्षमता रखती है ।यह क्षण विशेष की अभिव्यक्ति होते हुए भी सम्पूर्ण व्यक्ति, समाजिक परिवेश, पारिवारिक, राष्ट्र, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, जाति इत्यादि की जीवन्त रूप दर्शाती है। “”यह क्षिप्र एवं समसामयिक विधा है ।जो रचना के द्वारा दशा – दिशा- एवं -निर्देशन का काम करती है ।यह कम शब्दों में विस्तृत फ़लक तैयार करने की क्षमता रखती है ।अतः साहित्य की अन्य विधाओं में सबसे कठिन है लघुकथा सृजन ।कहानी, उपन्यास, उपन्यासिका,गद्य काव्य इत्यादि गद्य विधाओं में लेखक अपने मन मुताबिक बातों को विस्तार देकर पाठक के समक्ष लेखन कौशल का उपयोग बाखूबी करता है ।छोटी सी छोटे बातों को विस्तार देकर लेखक अपने संवेदनाओं -विचारों पर गहराई से कलम चलाकर समझने में सफल होता है । क्योंकि इस  विधा की सीमा सिमित नहीं होती है ।भाव की प्रस्तुति, अनुभूति की अभिव्यक्ति का विस्तृत आकाश  होता है ।किन्तु लघुकथा में ऐसी बात नहीं है ।हालांकि कहानी और लघुकथा में कई तात्विक अंतर नहीं है, फिर भी दोनों में  सिद्धांतिक अंतर जरूर है ।लघुकथा लेखन में लेखक को कथा में बड़ी हीं मुस्तैदी से पात्रों की मनोदशा की गहराई में विश्वसनीयता दिखानी होती है , जो ‘व्यक्ति विशेष’ का सत्य न होकर ‘समाज का सत्य’ हो ।तभी लघुकथा प्रभावकारी होती है ।और यह सब सीमित सीमा के बन्धन में हीं करना होता है ।कथानक में उदेश्य, प्रयोजन, सीमाबन्ध, प्रस्तुति, सम्प्रेषणीयता, शीर्षक, भाषा शैली, पत्रों की संख्या, चित्रण, समापन बिन्दु इत्यादि के साथ गम्भीरता पूर्वक रचना में उतारना होता है ।तभी एक सुन्दर, सुदृढ, सुघढ़ रचना लघुकथा बनती है ।और पाठको के द्वारा सराहे जाने से साहित्य पटल पर सर्वश्रेष्ठ स्थान बनाने में सफल होती है ।अतः श्रेष्ठ लघुकथा बनने हेतु रचना में सर्जनात्मक, कल्पनानिष्ठ, प्रेरणात्मक, नाटकीयता, सुचनात्मक सृष्टियाँ प्रत्यक्ष का एहसास हो।तभी लघुकथा मील का पत्थर बनाती है ।””इसके अलावे यह लघुआकारिय विधा होने के कारण इसके शब्दों में क्षिप्रता एवम् त्वरा का समुचित सहयोग होने के कारण इसमें सांकेतिक भाषा का उपयोग भी वेरोकटोक होती है ।प्रतीकात्मक यानि सांकेतिक भाषा का उपयोग -जैसे -! ‘ , ;या डाॅट-डाॅट, विरम चिन्ह इत्यादि सांकेतिक भाषा अनलिखे, अनकहे भाषा की प्रस्तुति परिलक्षित होती है ।इसके बावजूद लघुकथा में कथानक के अनुसार उसमें विवरण, वर्णन, वितर्क एवम् व्याख्या, संवाद की सुदृढता की  कसावट लघुकथा की ऊँचाई प्रदान करती है ।इन सब बातों को ध्यान में रखकर कथाकार रचना का सृजन करता है तो इसमें दो मत नहीं है कि रचना श्रेष्ठ न हो ।अर्थात वह ‘लघुकथा’ लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती है “

“लघुकथा लेखन  की दुसरे बिन्दु  लघुकथा का  उद्भव ।”-“यों तो कथा साहित्य का इतिहास अति प्राचीन है ।बावजूद इसके युग परिवर्तन के बाद काल खण्ड में परिवर्तन हुआ ।इसतरह हमरा साहित्य अट्ठारह सौ चौहतर- (1874)की सदी में आ पहुँचा ।अगर  यह देखा जाए तो ,आधुनिकयुग में लघुकथा का उद्भव काल 1874ई•है ।यानि कि लघुकथा की आरम्भिक काल अठारह सौ चौहतर ई•है ।अर्थात  लघुकथा  विधा इसी युग की देन है ।”1874ई•में “पटना की प्रथम हिन्दी साप्ताहिक पत्र “बिहार बन्धु “में पटना नार्मल स्कूल के शिक्षक “मुंशी हसन अली “की लघुकथाएं प्रकाशित मिलती है ।इनकी लघुकथायें “बिहार बन्धु “में काॅलम, पृष्ठ संख्या, जिल्द नंबर, दिन,महीना से बिना शीर्षक के हू-ब-हू, ज्यों की त्यों लिखे भाषा में, बिना संशोधन, परिमार्जन के प्रकाशित है।दृष्टव्य है –“छः मार्च-शुक्रवार , जिल्द 2 नंबर एक, पृष्ठ नौ, काॅलम से, फिर 1874ई•में हीं इनकी अनेक लघुकथाएं इसी तरह से प्रकाशय है –जिल्द 2-नंबर-3,अंक द्वितीय पृष्ठ काॅलम 3,फिर 7 अप्रेल मंगलवार जिल्द 2-नंबर 5,पृष्ठ 33 -काॅलम 3,छपी है।इत्यादि ।इनकी सभी लघुकथायें अनगढ,आदर्शवादी, शिक्षात्मक एवं उपदेशात्मक है। “तत्पश्चात् मुंशी हसन अली के बाद 1875ई•में भारतेंदु हरिश्चंद्र की लघुकथा “परिहासिनी” में आई ।लघुकथा है –“1875ई•भारतेंदु हरिश्चंद्र की लघुकथाएँ “परिहासिनी”में शीर्षक के साथ प्रकाश्य है ।जैसे –अंगहीन धनी, खुशामद इत्यादि अनेक लघुकथा प्रकाश्य में हैं ।अतः हम यह कहने में समर्थ है कि  लघुकथा में शीर्षक की परम्परा भारतेंदु की देन है ।हालांकि लघुकथा लेखन की बीज मुंशी हसन अली ने दी है किन्तु साहित्य में हिन्दी की  प्रथम लघुकथा भारतेंदु हरिश्चंद्र की  ‘अंगहीन धनी ‘को हीं माना जाता है ।लेकिन वर्तमान समय के लघुकथारों ने लघुकथा के मानक कसौटी पर “माधव राव स्प्रे “की लघुकथा ‘एक टोकरी भर मिट्टी ‘को लघुकथा के कसौटी पर खरा माना है ।वस्तुतः लघुकथारों की मतभिन्नता भी लघुकथा की व्यथा है ।तत्पश्चात् भारतेंदु के बाद लघुकथा सृजन में अनेकानेक कथाकार आऐ जिनमें -“माखनलाल चतुर्वेदी,पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, माधव राव स्प्रे, कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र,रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, आदि ने लघुकथा लेखन से लघुकथा सृजन के रास्ते प्रशस्त किऐ ।लेकिन तब लघुकथा को लघुकथा को “शार्ट स्टोरी “का सम्बोधन थी, फिर भी लघुकथा सृजन धीरे-धीरे विकास करने लगी ।इस तरफ लघुकथा विकास यात्रा तैय करती हुई उन्नीसवीं सदी में प्रवेश कर गयी।

“कथाकारों की सक्रिय साधना का सजीव रूप तब और निखर कर सामने आए जब 1942ई•में बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ ने शार्ट स्टोरी को “लघुकथा “का नाम दिया ।यानि कि छोटी कथा, लघुकथा के नाम से सम्मानित हुआ ।और तब से यही नाम लघुकथा हीं हुआ ।और फिर लघुकथारोंऔर पाठकों के बीच लघुकथा नाम हीं स्वीकृत रहा है ।इन्होंने लघुकथा को कुछ इसतरह परिभाषित किया है –“संभवतः लघुकथा और कहानी में कोई तात्विक अंतर नहीं है ।यह लम्बी कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं है ।लघुकथा का विकास दृष्टांतों के रूप में  हुआ ।वस्तुतःरचना और दृष्टि से लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का ,किसी विचार का,विशेष कर उसके सारांश का महत्व है ।”अतः जीवन की उत्तरोत्तर द्रुतगामिता और संघर्ष के फलस्वरूप उसकी अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता ने आज कहानी के क्षेत्र में लघुकथाओं को अत्यधिक प्रगति दी है ।“

“वस्तुतः लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में साहित्य में स्थापित हुआ ।और आजादी के बाद लघुकथा सृजन में त्वरा आयी और यह सफलता के सोपान चढ़ने लगी ।तत्पश्चात आधुनिक युग के सातवें दसक के आरंभ में लघुकथा बोधकथा, उपदेश कथा, आदर्श कथा की विवशताओं से हट कर अपने रचनाओं में समय के कठोर  सत्य को यथार्थ की धरातल पर कल्पना की पुट देकर प्रस्तुत करने लगे ।और लघुकथा लिखन का स्वरूप बदल गया ।और वह ,समय के कठोर सत्य की प्रस्तुति। जिसमें अनेकानेक कथाकार आऐ  वे हैं –सतीश दुबे, डा कृष्ण कमलेश, डा शंकर पुणतांबेकर,शयामनंदन शास्त्री, रावी, विक्रमसोनी।  आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री,भवभूती मिश्र,उपेन्द्रनाथ ‘अश्क,डाॅ त्रिलोकीनाथब्रजबाल, ,मधुकर गंगाधर, अयोध्या प्रसाद गोयल, ‘ ,डाॅ सतीश राज पुष्करणा, डाॅ सुरेंद्र मंथन, आदि अनेकानेक  लघुकथाकार की लघुकथा अपने समय काध्यान खींचा और पाठक को सम्मोहित किया ।”सन् 1975ई•का काल आपातकालीन काल थी ।परिणाम बाज़ार में कागज की कमी ।लेकिन क़ागज की संकट लघुआकारिय विधा के लिए शुभ इस मायने में थी कि पत्र -पत्रिकाओं में लघुआकारीय विधा स्थान ग्रहण करने लगी ।फलस्वरूप तमांम लघुआकारीय विधाओं को बढ़ावा मिला और वह धड़ल्ले से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगें।अतः दुरूह , अप्रचलित प्रतीकों एवं अधिक कलात्मकता से उपजे स्वाभाविकता की समस्या दूर हो कर समकालीन एवं वर्तमान समस्याओं को सरल भाषा एवम् सुस्पष्ट शब्दों की धार मिलने लगी तो लघुकथा जनमानस में प्रिय विधा बनी ।वस्तुतः लघुकथा साहित्य जगत् में एक सशक्त विधा के रूप में उभर कर सामने आयी और अपना स्वरूप विश्वस्तर पर महत्व सिद्ध करते हुए सफलता हासिल की ।अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आधुनिक काल के लघुकथाकारों ने अपनी रचनाओं में समय का कठोर सत्य की प्रस्तुति दी है ।अर्थात समकालीन लघुकथाकारों ने यथार्थ के धरातल पर आधुनिक रचनाओं में वैयक्तिक, विवशता, धार्मिक, जाति, राजनीति, पारिवारिक, राष्ट्र, इत्यादि के मानक पर विसंगतियों को उभारने में अधिक सफल हो रहे हैं ।बावजूद इसके समय परिवर्तनशील होता है ।

“यह अक्षरशः सत्य है कि युग परिवर्तन के साथ हर चीज बदल जाती है ।तो साहित्य में भी परिवर्तन आना नियमानुसार सही है ।तो साहित्य भी समय को निचोड़ता है ।क्योंकि साहित्य सामर्थ्य के हाथों  में सृजन की शक्ति होती है । लेखन में परिवर्तन आना आश्चर्यजनक बात नहीं है ।

” साहित्य जैविक  है ।” नवनिर्माण,नवप्रयोग समय की मांग होती है ।रचनाकार साधना के धरातल पर सृजन के फूल उगाते हैं।जिस में प्रत्यक्ष-परोक्ष का आकर्षण, संदेश की आत्मा ध्वनित होती है, जिससे भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों  होती है । वस्तुतः समय ने करबट बदली और लघुकथा जगत् में लघुकथाकारों की भीड़ उमड़ पड़ी ।नवोदय अपनी रचना की प्रस्तुति में जल्दबाजी दिखने लगे नतीजा लघुकथा जगत् में स्थान बनाने में कामयाबी नहीं मिलना  ।लघुकथा की ज्वलंत व्यथा है ।

“वस्तुतः लघुकथा की व्यथा पर सोचना आवश्यक होता है । क्योंकि लघुकथा साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसके द्वारा पाठक अल्प समय, कम शब्दों में हीं अपनी आतमसंतुषटी की खोज करने लगती है । अब लघुकथा सिर्फ मनोरंजन और समय काटने  मात्र का साधन नहीं रह गया अपितु साहित्य की अन्य विधाओं की भांति यह भी जीवन को गम्भीरता से ग्रहण करके उसका सम्प्रेषण करने लगी है।जब पाठक के दिलो-दिमाग में यथार्थ का बोध कराती है तब इसकी शक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है ।एक कथाकार जब कथा का सृजन करता है तो वह वर्तमान के साथ भविष्य की सार्थकता पर दृष्टि जरूर डालता है ।

“यह सत्य है कि पुराने फ़ना नहीं होते हैं किन्तु समयानुसार आलोचना की दृष्टि से अंतर जरूर होती है ।”कि अब ऐसा नहीं है -अब जीवन, जमाना तेज़ी से बदल रहा है “नवोदय वर्तमान का मुल्यांकन अपने अनुभव के आधार पर अपने अनुरूप करते हैं, और लघुकथा के लिए यही विचारणीय विषय है ।की कहाँ से चले और कहाँ पहुंच गए हैं ।क्या यह लघुकथा की व्यथा नहीं है ।वस्तुतः कथा साहित्य महज सदी के बदलाव पर सब सही है मानना विधा के लिए शुभ संकेत नहीं है ।

“हिन्दी कथा साहित्य एक सौ तीस वर्षों की अवधि में जो वैविध्य रूप हासिल किया है उसे देखकर इस विधा की प्रौढ़ता में सन्देह नहीं रह जाता है ।अतः लघुकथा भी अब  प्रौढ़ अवस्था में आ पहुँचा है ।और अब इसके सृजन युद्ध स्तर पर स्पर्श करने लगी है ।बावजूद इसके , लेखन शैली की  सावधानियाँ को नजरअंदाज करना इस विधा की व्यथा है ।जानकारी के अभाव इस विधा में बढोतरी के बावजूद आज इक्कीसवीं सदी में  महत्व, मुल्यांकन में वो  बात नहीं नज़र आती है जो लघुकथा आन्दोलन में विकास की यात्रा तै करती हुई होती थी ।अतः लघुकथा की व्यथा यानि समस्याओं पर दृष्टि डालनी जरूरी है ।

“लघुकथा की व्यथा “—लघुकथा अनेक सदी,अनेक पड़ाव पार करते हुए  आज यह इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया  है।आजादी के  बाद इस विधा का समुचित विस्तार  हुआ । आशातीत लघुकथा सफलता के सोपानचढ़कर हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज की ।और पाठक के मन मस्तिष्क की ज्ञान  पिपासा को तृप्त करने में सक्षम हुआ ।और पाठक के मन को झंकृत करके यह मानने पर मजबूर किया कि सही मायने में लघुकथा है ।जो कथा सिर्फ कपोल कल्पना हो वह लघुकथा कहना बेईमानी लगती है ।चूँकि कोइ रचना, रचना तब बनती है जब उसमें कल्पना के पुट के साथ जीवन की सच्चाई हो ।और लेखक अपने समय के सच को लिखता है वह जो देखता, भोगता, है रचना का विषय बनता है ।

“लघुकथा सृजन कठिन विधा है ” प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लघुकहानी को लघुकथा के परिधि में रखकर लेखक धनराशि से प्रकाशित करवा लेते है ।और प्रकाशन में लघुकथा के मानक को त़ाक पर रख दिया जाता है ।यह भी एक व्यथा है ।लघुकथा लेखन की जानकारी होना चाहिए ।तभी यह लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती है ।कभी-कभी लघुकथा, समाचार-पत्र के कतरन , संस्मरण, आत्मकथा, इत्यादि रचना को लघुकथा मान कर पज्ञ-पत्रिका में प्रकाशित होना , इसकी व्यथा है ।लघुकथाकारों की आपसी मतभिन्नताएं भी इसकी सबसे बड़ी व्यथा होती है ।कालदोष , अन्तरालदोष की जानकारी न होना भी इसकी सबसे बड़ी समस्या है ।”अतिआधुनिक युग का वर्तमान समय की स्थिति कोरोना काल है। वस्तुतः जनजीवन एक हीं बिन्दु पर आकर ठहर गयी है ।हालांकि कि इस घड़ी में जीवन की जितना  छती हुई है अकल्पनीय है ।लेकिन यह भी सच्चाई है कि इस कोरोना काल में हर विधा में सृजन कार्य  भी काफी मात्रा में हुआ है ।तो लघुकथा विधा में सृजन की बाढ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।हाँ !  सृजन किस स्तर का है यह देखने वाली बात है ।तिस पर आभासी दुनिया बेतहाशा लघुकथा सृजन के कारण इसके मानक की मुल्यांकन डगमगाने लगी है ।ऑनलाइन,फेसबुक, ट्विटर, इन्टरनेट, निजी ग्रुपों,निजी चैनलों पर लघुकथा नित नए आ रहे हैं ।यह बात लघुकथा लेखन के लिए शुभ है किन्तु कितनी लघुकथा मानक फ़लक पर बुनावट और कसावट में सही उतरती है यह देखने वाली बात है ।होड़ सी लगी है । “मैं”की ।”इस काल में कोरोना विषयक संग्रह, संकलन, पत्र-पत्रिकाओं में ई-पत्रिका मे  लघुकथा अधिक लिखे और प्रकाशित हुआ है ।कहने का मतलब है कि समय के कठोर सत्य को स्वीकारा और यथार्थ को प्रस्तुत दी ।किन्तु भविष्य में कितनी लघुकथा , लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरेगी ।इसकी वजह भी व्यथा हीं है ।हालांकि कि कभी-कभी एसी लघुकथा भी देखने को मिला है जो श्रेष्ठता की श्रेणी में आती है, परंतु अधिकांश लघुकथाएं समाचार-पत्र के कतरन सा लगने लगता है ।जो इस महामारी की बिमारी की खबरें, टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाली खबरें हीं हू-ब-हू घटनाक्रम को लघुकथा का विषय बना कर प्रस्तुत किया गया है ।यह विडंबना भी लघुकथा की व्यथा है ।

“कुछ लघुकथा इंस्टेंट किस्म के होने से यह लघुकथा की खतरा प्रत्यक्ष-परोक्ष होने लगी है ।”इसमे दो मत नहीं है कि समकालीन स्थितियाँ बदल गया है ।समय की कठोरता जादा साहित्य में स्थान ग्रहण किया है ।लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर पीली वस्तु सोना नहीं होती है ठीक उसी तरह हर कथा लघुकथा नहीं होती है ।”लघुकथा रोमांच पैदा करने की क्षमता रखती हो, कुछ सोचने पर मजबूर करती हो, या जो चरम का ऐहसास देता है सही मायने में लघुकथा कहलाती है ।यह भी सत्य है कि साहित्य में रचना अपने समय के सत्य को हीं प्रस्तुति करता है ।किन्तु वह सम्वेदनशील, हृदयस्पर्शी, विश्वसनीय हो ।लघुकथा किसी भी घटनाप्रधान से प्रभावित हो वर्तमान युग या बीता हुआ युग के घटनाक्रम के आधार पर लिखे गए हों , वह मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्पर्श करती हुई मनोदशा की विस्तार करती हुई होती है तो कथा प्रभावित करती है ।यानि कि वर्तमान समय के विषय कोरोना काल का हुआ तो कोरोना का व्यापकता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिलक्षित होती है, तो लेखक को कथा पात्रों की मनोदशा की गहराई मे स्थापित मनोदशा तक जाकर स्वाभाविक रूप से लघुकथा सृजन की प्रस्तुति लघुकथा की श्रेष्ठता के साथ विश्वसनीयता संप्रेषित करती है  तो एक सफल लघुकथा की मान्यता प्राप्त करने की क्षमता रखती है ।और ऐसी हीं लघुकथा दशा -दिशा निर्देश करती है । किन्तु जरा सी भी शास्त्रीय चूक  लघुकथा को कमजोर बना देती है और फिर वह समय की धूल में दब जाती है । अतः लघुकथा सृजन में चूक होना लघुकथा की व्यथा है ।“

कभी-कभी लम्बी लघुकथा की प्रासंगिकता भी लघुकथा की व्यथा बन जाती है ।कुछ लघुकथारों का यह मानना है कि लघुकथा की सीमा से बाहर  जहाँ लघुकथा पूर्ण  होती है, तो लम्बी  मायने नहीं होता है ।फिर भी रचना सीमा तोड़ने की व्यथा तो होती हीं है ।चूँकि लघुकथा आकारगत दृष्टि से अपेक्षाकृत काफी  क्षिप्र एवं लघु होती है, तो रचना को उभारने में पर्याप्त अनुभव, अध्ययन, और कौशल की आवश्यकता होती है ।लघुकथा की सफलता मूलतः कथा वस्तु, उदेश्य, प्रयोजन, सीमाबन्ध, प्रस्तुति, सम्प्रेषणीयता, शीर्षक, भाषा कौशल, पात्र की संख्या, चित्रण, समापन बिन्दु इत्यादि  की सही प्रस्तुति पर निर्भर  करती है ।और यह रचनाकार पर निर्भर करता है कि वह अपने रचना कौशल से पाठक को क्या देरहा है ।वस्तुतः लघुकथा सृजन में क्या-क्या सावधानी बरतनी चाहिए जानकारी के अभाव में लघुकथा लेखन में बढोतरी होने के बावजूद आज इक्कीसवीं सदी में प्रौढ़ता प्राप्त होने के बाद भी लघुकथा की व्यथा बरकरार है ।”अतः मेरा यह मानना है कि लघुकथा यथार्थ की धरातल पर साहित्य की वह विधा है जो लेखक और पाठक को एक सुत्र में जोड़ता है ।लघुकथा चाहे किसी भी विचारधारा से प्रभावित हो, लेकिन वह मानवोत्थानिक विचार से समृद्ध हो ।वही सफल लघुकथा माने जाते हैं।किन्तु लघुकथा अत्यधिक मात्रा में लिखने की होड़ लघुकथा की मुल्यांकन पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं ।वस्तुतःइस आपाधापी की सृजन में कभी-कभी लघुकथा सपाट व्यानी , लम्बी , तो कभी कहानी का प्लॉट इत्यादि सा मिलता है। फलस्वरूप  लघुकथा के लिए ख़तरा साबित होती है ।जो लघुकथा की अति व्यथा है ।वस्तुतः उपर्युक्त बातों से लघुकथा  पार्थक्य कहाँ और किस प्रकार से हो इसकी जानकारी होनी चाहिए कुछ व्यावहारिक बातों पर ध्यान देकर लघुकथा सृजन हो तो लघुकथा की व्यथा से मुक्त हो कर  सुदृढता की कसावट के साथ लघुकथा साहित्य में श्रेष्ठ बनती है। “मैं स्वयं इस विधा की हेतु बहुत पुरानी कथाकार हूं, फिर भी मेरी दृष्टि में इन कतिपय बिन्दुओं पर विचार करके समुचित व्यावहारिक समाधान उपस्थित किया जाए तो इस विधा की हित में होगा ।तब लघुकथा मील का पत्थर साबित होगी और लघुकथा की व्यथा का समाधान हो सकता है ।अर्थात लघुकथा यथार्थवाद पर आधारित साहित्य की एक ऐसी विधा है जो केबल समाज का दर्पण हीं नहीं अपितु दीपक भी है।“

“लघुकथा संख्यात्मक से जादा गुणात्मक हो । हालांकि वर्तमान लघुकथा सृजन में बाढ तो आई हीं है, पत्र-ईपत्रिका में भरपूर मात्रा में छप भी रहीं है ।लेकिन यह सृजन आनेवाले समय में कितना सफल रहेगी यह तो वक्त हीं बताएगी ।फिर भी यह संतोषजनक बात है कि लघुकथा पूर्ण रूप से साहित्य में स्थापित होगया है ।फिर भी यह लेखकों पर निर्भर है कि वह अपनी लघुकथा को किस स्तर पर पहुंचाते हैं।और कितना पाठकों के बीच में सराहे जाता है ।लघुकथा प्रभावकारी ,सम्वेदनशील, हृदयस्पर्शी, विश्वसनीय हो ।लघुकथा की  व्यथा से मुक्त होगी।

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