एक सफ़र इश्क़ का

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 —-प्रियांशु त्रिपाठी

बहुत दिनों के बाद

जब मिलने की बारी आती है

 आँखें झुक सी जाती है

और ये होठ बोल ना पाती है

 बस थोड़ी थोड़ी देर में

उनके चेहरे का दीदार होता है

 पर हाँ मगर इससे पहले

उनके ट्रेन का इंतज़ार होता है

 माइक में जब गाड़ी नंबर

वो विदेशी महिला बुदबुदाती है

मानो कोई को़यल

जैसेसावन में मीठी गीत सुनाती है

 फिर गाड़ी की आहट पर

वहाँ लोगों का मेला लगता हैं

 पर मुझे इस भीड़ में भी

एक शख़्स अकेला लगता है कल ही आने वाली थी मैं

पर भइया ने जो देर करा दी फिर क्या पापा ने मेरी

बुआ के शहर से ट्रेन करा दी देर के लिए सॉरी

ना चलो भूख लगी है

 कुछ खाते है

इतनी सी ही बात पर पागल! क्या ऐसे मुंह फुलाते है

 पागल को समझ कहाँ

आख़िर पागल मान ही जाता है दो प्लेट में चाट लबालब

और दो प्याली चाय मंगाता है सफ़र यही पर रूका नहीं ठंड में आइसक्रीम भी खानी थी

मुझे पागल कहने वाली करती खुद भी बहुत नादानी थी

 गुस्से से पहले दो टूक देखा

फिर ना कह के जो वो टाला मैंने चेहरा उनका रूठ गया

पर लगता शायद ठीक संभाला मैंने मैंने भी वहीं बात कहीं जो वो मेरे किस्से में समझाते है

इतनी सी ही बात पर पागल!

 क्या ऐसे मुंह फुलाते है

 इश्क़ में भी हैं रंग बहुत

यहाँ रूठना मनाना लगा रहता है इश्क़ में भी खास यहीं है ये ना हो तो इश्क़ कहाँ रहता है ।।

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