राष्ट्रनिर्माता डा. काशी प्रसाद जायसवाल

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 डॉ ध्रुव कुमार

1924 ईस्वी में अपने देश में एक किताब प्रकाशित हुई – ”  हिंदू पालिटी । ” यह किताब भारतीय इतिहास में क्रांति पैदा करने वाली पुस्तक साबित हुई । ऐसा इसलिए कि आमतौर पर अंग्रेज इतिहासकार भारत के गौरवशाली अतीत पर पर्दा डालते रहते थे। इस किताब से यह पहली बार साबित हुआ कि भारत में उत्तर वैदिक काल में सफल प्रजातांत्रिक व्यवस्था थी, जो जनता के प्रति उत्तरदायी था और संवैधानिक भी। छह वर्ष बाद 1930 ईस्वी में एक और महत्वपूर्ण पुस्तक ” हिस्ट्री ऑफ इंडिया ” प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में पुराण, साहित्य, अभिलेख और सिक्कों के आधार पर एक- एक कड़ी जोड़ कर यह साबित किया गया कि कुषाणों के अंत और आंध्र राजवंश तथा गुप्त साम्राज्य के उदय के बीच ” नाग ”  और ” वाकाटक ” साम्राज्य काल था। भारतीय इतिहास के गौरवशाली अध्याय का विवरण 1934 ईस्वी में प्रकाशित ” एन इंपीरियल हिस्ट्री ऑफ इंडिया ” में बखूबी मिलता है। इस पुस्तक में प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ ”  मंजूश्री मूलकल्प ” के आधार पर विवेचन करते हुए अनेक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया गया। अंग्रेज विद्वानों के विचारों का खंडन कर भारतीय गौरवशाली इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को दुनिया के सामने लाने वाली इन पुस्तकों के रचयिता थे – पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, कानूनविद्, पत्रकार – संपादक और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल।

काशी प्रसाद जायसवाल का जन्म 27 नवंबर 1881 को पश्चिम बंगाल के झालदा में हुआ था। वे मूलत उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे, लेकिन उनकी कर्मभूमि बिहार थी। उन्होंने अपने जीवन के कुल 56 वर्षों की उम्र में से अंतिम 23 वर्ष पटना में गुजारे।उनकी प्रारंभिक पढ़ाई – लिखाई

पहले घर पर और बाद में लंदन मिशन स्कूल, मिर्जापुर  उत्तर प्रदेश से हुई। अब लंदन मिशन स्कूल बाबूलाल जायसवाल हाई स्कूल के नाम से जाना जाता है। उन्होंने 1909 ईसवी में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से इतिहास में एम ए की डिग्री हासिल की और इंग्लैंड में उन्होंने ही उन्होंने वकालत की और चीनी भाषा का अध्ययन किया । उन्हीं दिनों वे लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, श्यामजी कृष्ण वर्मा, एम आर राणा जैसे भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। परिणाम यह हुआ कि ब्रिट्रिश सरकार उन्हें ढूंढने लगी और वे किसी तरह तुर्की, मिस्र और अरब होते हुए जुलाई 1910 में भारत वापस पहुंचे। स्वदेश लौटकर उन्होंने कलकत्ता ( अब कोलकाता ) में वकालत शुरू की। कलकत्ता में वकालत के साथ-साथ इतिहास और पुरातत्व संबंधी शोध कार्य जारी रखा। दो साल के बाद 1912 ई में उनकी योग्यता से प्रभावित होकर कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति सर आशुतोष बनर्जी ने उन्हें स्नातकोत्तर इतिहास विभाग में पढ़ाने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। लेकिन राजनैतिक विचारधारा और स्वतंत्रता सेनानियों से उनके संपर्क के कारण सरकार ने उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय छोड़ने पर विवश कर दिया। परिणामस्वरूप 1914 ईस्वी में बंगाल विभाजन के बाद पटना आ गये और यही स्थायी रूप से बस गये। 1916 ईस्वी में पटना उच्च न्यायालय की स्थापना के बाद उन्होंने यहीं वकालत शुरू की और हिंदू कानून और आयकर कानून के विशेषज्ञ के रूप में उनकी अच्छी – खासी पहचान हो गई। वकालत और समाचार – पत्र संपादन की व्यस्तता के बावजूद इतिहास और पुरातत्व से उनका साथ बना रहा। परिणाम यह हुआ कि 1919 ईस्वी में उन्हें पटना विश्वविद्यालय के सिंडिकेट की ओर से भारतीय पुरातत्व का  ” रीडर ” बनने के लिए आग्रह किया गया। कहा जाता है कि वे अपनी जेब में अक्सर अनपढ़ा प्राचीन सिक्का रखते थे और विश्राम के क्षणों में उसे पढ़ने का प्रयत्न करते। वे प्राचीन मुद्रा के अच्छे ज्ञाता थे । कलिंग के राजा खारवेल के हाथीगुंफा अभिलेख पढ़ने में उन्होंने पुरातत्वविद आर डी बनर्जी के साथ काफी परिश्रम किया था। उन्होंने मनु और याज्ञवल्क्य पर भी अनेक शोध कार्य किए । उन्हें पटना संग्रहालय के वर्तमान स्वरूप की रूपरेखा तैयार करने वालों और ” बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी ” के संस्थापकों में एक माना जाता है। पटना संग्रहालय को समृद्ध करने के लिए उन्होंने सिक्कों और अन्य पूरावशेषों का अपना व्यक्तिगत संकलन इसे सौंप दिया। डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित  ” भारतीय इतिहास परिषद ” की स्थापना में भी काशी प्रसाद जायसवाल ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उन्हें 1934 और 1936 में  लगातार दो बार ” भारतीय मुद्रा समिति ” ( न्यूमिसमेटिक सोसाइटी ऑफ इंडिया ) का सभापति भी चुना गया। वे पहले भारतीय थे, जिनका व्याख्यान लंदन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में अक्टूबर 1935 में हुआ था। इस व्याख्यान का विषय था -” मौर्य कालीन सिक्के ।” काशी हिंदू विश्वविद्यालय और पटना विश्वविद्यालय उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। उनकी मित्र मंडली में राहुल सांकृत्यायन, रविंद्रनाथ टैगोर और जे विद्यालंकार आदि शामिल थे। यह लोग जब भी पटना आते, काशी प्रसाद जयसवाल के निवास पर ही ठहरते थे।

उनका पत्रकारिता से भी गहरा लगाव था। उन्होंने 1917 ईस्वी में पटना से प्रकाशित ” पाटलिपुत्र ” का संपादन किया। उनके संपादन में यह साप्ताहिक अपने शुरुआती दिनों से ही बिहार और पड़ोसी राज्यों की प्रबुद्ध और जागृत जनता का पुरोधा बन गया था। मुखर राष्ट्रीय स्वर, सुसंपादित लेख और आकर्षक छपाई, यह सब मिलकर पाटलिपुत्र को लोकप्रियता की शिखर की ओर ले गया। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन दिनों इसकी  प्रसार संख्या तीन हजार से ऊपर पहुंच गयी। हालांकि इस समाचार पत्र के प्रकाशक हथुआ महाराज पर अंग्रेजों का बहुत दबाव था। फिर भी ” पाटलिपुत्र ” ब्रिटिश शासन की गलत नीतियों की कटु आलोचना करने से कभी पीछे नहीं रहा। जेल और जुर्माने की परवाह किए बगैर शासन के गलत फैसलों का निर्भीकता पूर्वक धज्जियां उड़ाने में यह गौरवशाली पत्र कभी पीछे नहीं हटा। इसके पाठकों को जोशीले लेखों की प्रतीक्षा रहती थी। लोगों की आशाओं के अनुरूप काशी प्रसाद जायसवाल अग्रलेख भी लिखा करते थे। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अंक में ” स्वतंत्रता ” शीर्षक से ओजपूर्ण लिख डाला । इसका परिणाम यह हुआ कि चारों ओर हलचल मच गई। एक महाराज का समाचार पत्र होने के कारण वैसे भी इस पत्र पर अंग्रेजों की कड़ी निगाह और निगरानी थी। अतः ” स्वतंत्रता ” का असर तो होना ही था। अंग्रेजों ने इस लेख पर आपत्ति की। यह तो सभी लोग जानते थे कि जनता की आशाओं के अनुकूल कुछ भी लिखना खतरा मोल लेना है । यह जानते समझते हुए भी संपादक काशी प्रसाद जायसवाल यह खतरा मोल लेते रहते थे।उनके अग्रलेख और संपादकीय ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसी ज्वाला भड़काई कि उसकी तपिश से अंग्रेजी हुकूमत तिलमिला उठी। एक राजघराने का समाचार पत्र होने के कारण दवाब में इन्हें पाटलिपुत्र के संपादक पद से इस्तीफा देना पड़ा।

निर्भीक और विनोदी स्वभाव के काशी प्रसाद जयसवाल बचपन से ही रूढ़ियों के विरोधी, प्रगतिशील, भारतीय संस्कृति के पक्षधर, विद्वानों के आश्रयदाता और प्रतिभा के सच्चे कद्रदान थे। 4 अगस्त 1937 को मात्र 56 वर्ष की आयु में पटना में उनका निधन हो गया।

 उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन के क्षेत्र में अनेक मानदंड स्थापित किए। आजादी से पूर्व शायद ही किसी अन्य व्यक्ति ने इतिहास के विभिन्न क्षेत्रों में इतना महत्वपूर्ण कार्य करने का दुस्साहस किया हो। भारतीय इतिहास में कई स्वर्णिम अध्याय जोड़ने वाले काशी प्रसाद जायसवाल एक पुरातत्वविद, इतिहासकार, कानूनविद, संपादक और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे। गौरवशाली भारतीय संस्कृति को पूरी दुनिया में स्थापित करने में उनका योगदान अविस्मरणीय है।

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