“प्राचीन भारतीय राजनय और वृहतर भारत की गौरवगाथा” (भाग ६ )

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—-डॉ नीता चौबीसा,’

इसके अलावा दक्षिण पूर्वी एशिया के कम्बोज, चम्पा, मलाया, बर्मा और इण्डोनेशिया में भी विजय और शैलेन्द्र साम्राज्य की स्थापना कर भारतीय संस्कृति की पताका ने विश्व गौरव हासिल किया। चोल शासकों द्वारा लंका पर राजनैतिक प्रभुसत्ता हासिल करना और वहां भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार करना प्राचीन भारत की अभूतपूर्व उपलब्धि कही जा सकती है। भारतीयों द्वारा स्थापित ये उपनिवेश भारतीय संस्कृति में इतने रच-बस गये कि आज तक वहां की कला संस्कृति पूर्णरुपेण भारतीय नजर आती है। मध्य एशिया के बहुत से स्थलों को देख कर सर स्टेन ने कहा था – ‘‘इन स्थानों को देखते हुए यही ख्याल आता है मानो हम भारतीय-पंजाब के किसी पुराने शहर में घुम रहे है।
’’शिक्षण केन्द्रो व धर्माचार्यो की भूमिका:
भारतीय संस्कृति के विस्तार में भारत के धर्म और शिक्षण केन्द्रो यथा नालन्दा, विक्रमशिला, तक्षशिला, औदंतपुरी और वल्लभी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां अनेक ऐसे शासक और धर्माचार्य हुए जिन्होने धर्म अध्यात्म के प्रचार के लिए अपने अनुयायियों को बड़ी संख्या में विदेशो में भेजा इनमें सम्राट अशोक और कनिष्क का नाम उल्लेखनीय है। बहुत से बौद्ध भीक्षु और धर्माचार्य धर्म प्रचार हेतु हिमालय और हिन्दु कुश को लांघ कर ओर असीम अछोर समुद्रो को पारकर सुदूद देशो में गये जहां भारतीय संस्कृति और बोद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ऐसे देशो में चीन,जापान, बर्मा, इण्डोनेशिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाईलेण्ड, मध्य ऐशिया, अफगानिस्तान, लंका आदि प्रमुख है। जहां आज भी वृहतस्तर पर भारतीय धर्म संस्कृति के रंग गहरे देखे जा सकते है। शुंग,भारशिव और गुप्तों के शासनकाल में वैष्णव और शैव आचार्यो के दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों में अपने मत का प्रचार प्रसार किया जिससे भारतीय कला, साहित्य, भाषा और संस्कृति वृहत्तर भारत को
निरुपित कर सके। यदि विशाल सांस्कृतिक साम्राज्य को वृहत्तर भारत का नाम दिया जाये तो वह वैदेशिक संबंधो की प्रगाढता छटी सदी ई.पू. से आरम्भ होती है। विविध ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि भारत की यह संस्कृति आध्यात्मिक दिग्विजय थी। वृहत्तर भारत की स्थापना 200 ईस्वी तक हो चूकी थी जो काल क्रम में भारत के उत्तर और उत्तरपूर्व के देशो से यथा तिब्बत चीन मगोलिया कोरिया व जापान के साथ,दक्षिणपूर्व के देशो यथाइन्डोनेशिया,श्रीलंका,
इन्डोनेशिया, वर्मा, कम्बोज, मलेशिया, सुमात्रा, बाली, जावा तथा मध्य एशिया में बुखारा, समरकन्द, कुचि, काशघर, तुरफान, खोतान तक गुप्त काल से ग्यारहवी शताब्दी तक राजनैतिक सांस्कृतिक प्रत्यक्ष प्रभुत्व के रुप में बनी रही।
दीर्घकाल तक स्वेच्छा और प्रसन्नता से स्वीकारे गये भारतीय प्रभुत्व की यह गौरवगाथा विश्व में अन्यत्र कहीं दृष्टव्य नही होती। फ्रांसीसी विद्वान ने यही सब देखते हुए ठीक ही की लिखा है – ‘‘यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है, जो स्वयं को मानव जाति का पालना होने की घोषण करने का अधिकारी है अथवा प्रारम्भिक सभ्यता का दृष्टा है, जिसकी सभ्यता की किरणों ने प्राचीन विश्व के सभी भागों को आलेकित किया है, जिसने ज्ञान के वरदान से मनुष्य को द्विज बनाया है, प्राकृत से संस्कृत किया है, तो वह देश वास्तव में भारतवर्ष ही है।’’
वृहतर भारत के सांस्कृतिक संबंध: उत्तर पूर्व एशिया
जहां तक उत्तर और उत्तर-पूर्व के देशो के साथ भारत के सांस्कृतिक संबंधो का प्रश्न है – प्रथम नाम तिब्बत का आता है, भारतीय ग्रंथो ने इसे त्रिविष्टप कहा गया है। 7वीं शताब्दी में वहां के शक्तिशाली राजा सांग-सौन-गैम्पो ने अपनी विवाहिता के साथ ले जाई गई महात्मा बुद्ध की मूर्तियों से प्रेरित होकर न केवल इस धर्म को ग्रहण किया वरन् वहां अनेक बोद्ध विहारो व चैत्यो का निर्माण करवाया। 11वीं शताब्दी में विक्रमशिला के महान् आचार्य अतीशदीपकंर वहां पहुंचे और 17 वर्षो तक वहां भारतीय संस्कृति व बौद्धधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। तिब्बती लिपि का आविष्कार नालन्दा विश्व विद्यालय में ही हुआ। भारतीय शिक्षा प्रणाली को वहां अपनाया गया। वहां के ‘समय विहार’ पर ओदन्तपुरी की वास्तु की छाप दृष्टव्य होती है। भारतीय वैद्यक ग्रंथ तिब्बती भाषा में अनूदित हुए। आज भी तिब्बती संस्कृति के विविध पक्षो पर भारतीय प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। भारत और चीन का सांस्कृतिक सम्पर्क दूसरी शताब्दी ई.पू. की आरम्भ हो चुका था। चीन के राजकीय स्त्रोतो से ज्ञात होता है कि 65 ई में चीनी सम्राट मिगति के निमन्त्रण पर सर्वप्रथम दो भारतीय बौद्ध आचार्य -धर्मरत्न और काश्यप मातंग बहुसंख्यक पवित्र बौद्ध ग्रंथ व अवशेष लेकर गए, जिनके निवास हेतु चीनी शासक ने ‘श्वेताश्व विहार’ बनवाया था। इन्होने चीन में रहते हुए चीनी भाषा में बौद्ध ग्रंथो को अनूदित किया। कालांतर में अनेक बौद्धभिक्षु एशियाई देशो से भी चीन गए जिनमंे लोकोत्तम, संघभद्र, धर्मरक्षक आदि प्रमुख है। इन बौद्ध विद्वानों ने प्रचार कार्यो एवं चीनी सम्राटो के राजकीय संरक्षण से भारतीय संस्कृति एवं बौद्ध धर्म ने चीन के जन जीवन में प्रमुख स्थान बना लिया। भारत के प्रारम्भिक प्रचारकों में धर्म क्षैत्र,गुणभद्र, बुद्धभद्र, धर्म गुप्त, उपशुन्य, परमार्थ आदि उल्लेखनीय हैं। कूची के बौद्ध विद्वान कुमारजीव प्रथम विद्वान थे जिन्होने संस्कृत ग्रंथो का चीनी में अनुवाद किया, महायान दर्शन की व्याख्या की। उनके प्रभाव से बौद्ध संस्कृति व संस्कारों की जडे़ चीन में गहरी पेठ गयी। बौद्ध की सरलता व्यावहारिकता से प्रभावित हो चर्तुथशति में फाह्यान हर्षवर्धन के काल में युवानचुवांग और 671 ई. में इत्सिंग चीनी बौद्ध यात्री के रुप में भारत आए और कई वर्षो तक नालन्दा विश्व विद्यालय तथा अन्य महत्वपूर्ण स्थलों पर रह कर विशद अध्ययन किया। भारतीय संस्कृति के विविधतत्वों का चीनी संस्कृति पर व्यापक प्रभाव दृष्टि गत होता है। वृहत्तर भारत के सांस्कृतिक संबंधो तथा विविध विद्वानों के विचारों के आदान प्रदान का उत्तर दायित्व आर्चायों और भिक्षुओं के दो तरफा संप्रेषण पर निर्भर रहा। चीन से भारतीय संस्कृति के तत्व कोरिया पहुंचे। कोरियाके प्योंगयांग नगर में 404 ई.में एक भारतीय भिक्षु ने दो मंदिरो का निर्माण करवाया। ज्ञान पिपासु कोरियन विद्वान ज्योतिष, खगोल विज्ञान, आर्युवेद के अध्ययन हेतु भारत आये और बाद मंे कोरिया में छः हजार खंडो में बौद्ध ग्रंथो का प्रकाशन किया। इस तरह भारतीय लिपियां भी कोरिया पहुंची। (क्रमशः)

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