देवानांप्रिय प्रियदर्शी चक्रवर्ती सम्राट अशोक

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देवानांप्रिय प्रियदर्शी चक्रवर्ती सम्राट अशोक

डॉ ध्रुव कुमार

सम्राट अशोक भारतीय इतिहास में ही नहीं, बल्कि संसार के इतिहास में भी अद्वितीय हैं I वे मानव इतिहास के गगन के ऐसे पूर्णेन्दु हैं जिनकी शुभ्रकांति के सामने असंख्य तारों से टिमटिमाते नृप और राजागण गतिहीन प्रतीत होते हैं I राजाओं के सिरमौर होने पर भी उन्होंने चक्रवर्ती या सम्राट आदि राजकीय उपाधियों  का अपने नाम के साथ प्रयोग नहीं किया I अभिलेखों में उन्होंने अपने लिए केवल राजा और देवानांप्रिय उपाधियां ही प्रयुक्त की हैं I

यह सर्वविदित ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट अशोक ने एक प्रशासक, गुरु और विश्व कल्याणकारी राजा के रूप में प्राणी मात्र के लिए अनेक उपक्रम और कार्य किए जो उन्हें दुनिया के तमाम श्रेष्ठ शासकों में सर्वोच्च स्थान पर स्थापित करता है I सम्राट अशोक के कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए जिन दो महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है, उनमे प्रथम- उनके आदर्श क्या थे? और द्वितीय- उनके कार्य का उद्देश्य क्या था ?
ज्यादातर इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि सम्राट अशोक का व्यक्तित्व एवं उनके ह्रदय की बात उनके लेखों में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है I उनकी लेखन शैली पूर्ण रूप से उनके व्यक्तित्व को प्रकट करती है I शायद यही कारण है कि पाश्चात्य विद्वान चानपेंशियर और सेनार्त मानते हैं कि सम्राट के लेखों में भावों की एकरूपता है और इससे उनके भावों का प्रकटीकरण भी होता है I उनके वाक्य हृदय के उद्गार थे जो शिलालेख व स्तंभों पर उत्कीर्ण है I
कलिंग ( उड़ीसा ) शिलालेख में वे कहते हैं – ” सब मुनीषि मी प्रजा ” अर्थात सब मनुष्य मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपने पुत्रों के हित और सुख का अभिलाषी हूं वैसे ही मैं प्रजा के सुख की भी इच्छा करता हूं I
छठे (मानसेरा) शिलालेख में वे कहते हैं कि- ” कटिव्यमते हि में सर्वलोक हिते ” अर्थात सर्वलोक का कल्याण ही मेरा कर्तव्य है I साथ ही वे कहते हैं- ”  हिद च कानि

सुखायमी पलत चा स्वर्ग आलधयितु ” अर्थात मेरी अभिलाषा है कि अपनी प्रजा को इस लोक में सुख दूं, जिससे वे परलोक में स्वर्ग प्राप्त करें I

स्पष्ट है कि सम्राट अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूर्णतया समझते थे I सम्राट अशोक जानते थे सुरेंद्रणों मात्राभयों निर्मित: नृप ” अर्थात राजा इंद्र आदि श्रेष्ठ देवताओं के अंश से निर्मित हुआ है I अतः इनका प्रथम कर्तव्य ‘ परिरक्षणम ‘ है I

सम्राट अशोक का परिरक्षण कार्य अपनी प्रजा तक सीमित नहीं था I वे सर्वलोक की रक्षा के प्रति भी चिंतनशील थे I साथ ही मनुष्यों के अलावा वे सभी प्राणियों एवं जीव मात्र की रक्षा के प्रति भी चिंतित थे I मनुष्यों के अलावा वे सर्व प्राणियों व जीवमात्र का पालन और कल्याण
करना चाहते थे I सम्राट अशोक प्रजा के हित व सुख के साथ-साथ पारलौकिक अथवा स्वर्गिक सुख के भी अभिलाषी थे I उनके शिलालेखों तथा स्तंभ लेखों में कई बार इहलोक और परलोक ‘ इध ‘ और ‘ परम ‘ शब्द आया है I सम्राट के मस्तिष्क में प्रजा के हित और सुख की कामनाओं का सतत चिंतित उनके लेखों में दृष्टिगोचर होता है I
उनका ऐतिहासिक मूल्यांकन और निरूपण करने से ज्ञात होता है कि वे मानव इतिहास के लाखों राजाओं, शहंशाह और सम्राटों में भी सर्वोपरि थे I वस्तुतः अशोक महान थे और सच्चे अर्थों में ऐसे महामानव थे जिन्होंने प्रजा के सर्वलोक के हित और सुख के लिए सदैव कार्य किया I
पाश्चात्य विद्वान सेनार्त लिखते हैं- ” जिस पराक्रम के साथ सम्राट धर्म के लिए उत्साहित हुए तथा अन्य राष्ट्रों के प्रति उनका जो संबंध था अथवा भारतवर्ष के सुदूरवर्ती लोगों से जो उनका संबंध रहा और अंततः जो कुछ स्तूपों और लेखों से ज्ञात होता है, प्रियदर्शी ने निसंदेह भारतीय संस्कृति के निमित्त अनन्य सेवा की तथा इन सेवाओं के लिए अशोक को गौरव प्रदान करने को हम न्यायबद्ध  हैं I ”
स्पष्ट है सम्राट का जो संबंध अपनी प्रजा से था, वही संबंध अन्य देशों की प्रजा के साथ भी था I जिस तरह सम्राट अपनी प्रजा की हित-चिंता किया करते थे, उसी तरह से बाह्य प्रदेशों की प्रजा के हित की कामना  लिए भी प्रयत्नशील रहते थे I द्वितीय शिलालेख में वर्णन है कि सम्राट अशोक ने अन्य देशों में भी समाज के हित कार्यों का किस प्रकार प्रबंध करवाया था I साथ ही सातवें स्तंभ लेख में वर्णित है – ”  देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा कहते हैं कि मैंने मार्ग पर बरगद के पेड़ लगवाए, जिससे वे मनुष्यों और पशुओं को छाया प्रदान करें I आम्रकुंज लगाए गए और प्रत्येक आधे कोस पर कुंए खुदवाये गए, धर्मशालाएं बनवायी गईं तथा मैंने कई पानी पीने के स्थान स्थापित किए, क्यों ? मनुष्यों  और पशुओं के सुख के लिए ही, जिससे लोग धर्म पर
आचरण करें, इसलिए मैंने इस प्रकार किया I “

स्पष्ट है कि उनके धर्म कार्यों का अभिप्राय मनुष्य और पशु दोनों को सुख पहुंचाना था I छठे शिलालेख में सम्राट अशोक की घोषणा करते हैं कि यह धर्म लिपि इसलिए लिखवाई गई है कि इससे मेरे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र सर्व कल्याण हेतु उसका अनुसरण करें I इसी तरह अन्य लेखों के अंत में भी सम्राट धर्म लिपियों के चिरस्थाई होने की अभिलाषा प्रकट करते हैं I धर्म लिपियों को चिरस्थाई बनाने के लिए सम्राट ने प्रस्तर कला को अपनाया I इसके फलस्वरूप अशोक के समय में राजकीय संरक्षण पाने से आश्चर्यजनक रूप से इस कला की उन्नति हुई I अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े शिला स्थापित कराए गए और चट्टानों पर लेख लिखे गए I गुफाओं का निर्माण किया गया तथा अन्य प्रकार अनेक प्रकार की वस्तुएं निर्मित की गई I

14वें शिलालेख में सम्राट अशोक ने धर्म विजय को प्रमुख विजय घोषित किया I धर्म विजय के परिणामों पर प्रकाश डालते हुए सम्राट कहते हैं कि जो विजय अब तक इससे प्राप्त हुई है धर्म से प्राप्त हुई है, वह आनंद अथवा प्रेम को पैदा करने वाली है I धर्म विजय से आनंद प्राप्त होता है वह धर्म विजय लोक और परलोक दोनों में आनंद देने वाली है इसलिए सम्राट अपने पुत्रों को संबोधित करते हैं -” मेरे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र विजय करने का विचार न करें I उन्हें उदारता, शांति और सहिष्णुता में आनंद मनाना चाहिए I यदि उन्हें आनंद आए तो धर्म विजय समझना चाहिए और उसमें आनंद मनाना चाहिए I

कलिंग युद्ध के दौरान व्यापक हिंसा के बाद सम्राट अशोक का मन पश्चाताप से भर उठा I परिणामस्वरूप उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसके प्रचार-प्रसार में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया I कुछ विद्वानों का मत है कि अशोक ने  बौद्ध धर्म का नहीं बल्कि सिर्फ मानवीय मूल्यों का प्रचार प्रसार किया I अभिलेखों में प्रायः हर जगह उनके लिए देवानांप्रिय प्रियदर्शी का उल्लेख हुआ है I मास्की, कर्नाटक अभिलेख में पहली बार अशोक का उल्लेख आया है I इन सब के बावजूद  उनके अभिलेख अत्यंत महत्वपूर्ण है और इनसे अशोक की धम्म विजय के साथ- साथ उनकी निजी जिंदगी पर भी प्रकाश पड़ता है I इन अभिलेखों से गुजरते हुए हम करुणा के अलौकिक संसार से गुजरते हैं और मानवीय मूल्यों की ऊंचाइयों को छूते हैं I

सम्राट अशोक की महानता भी इस तथ्य में है कि वे अपने विजय का गुणगान नहीं करते, बल्कि विजय के क्षण में भी पश्चाताप से भर उठते हैं और शांति व धर्म के रास्ते पर चलने का संकल्प लेते हैं I इस प्रकार वे विजय की परिभाषा और अवधारणा को नया अर्थ प्रदान करते हैं I शायद यही कारण है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु जी ने कहा था – ” अशोक ने इतिहास के विजयी नायकों और राजाओं से बिल्कुल अलग युद्ध की नीति को त्यागने का निर्णय तब लिया जब वह विजय के शीर्ष पर थे I “

सम्राट अशोक विशाल भारतीय राष्ट्र के सार्वभौम अधिपति थे I यदि सम्राट अशोक एक महत्वकांक्षी और विस्तारवादी आक्रमक सम्राट होते तो सत्य-विजय को धर्म-विजय में परिवर्तित क्यों करते ? यदि उन्होंने आक्रमण युद्धों का परित्याग न किया होता तो अपने युग के उस प्रभुत्व शक्तिशाली सम्राट को दक्षिण सीमांत के स्वतंत्र अस्तित्वधारी चेर, चोल पांड्य पुत्र और केरल पुत्र आदि राज्यों, उत्तर में हिंदू कुश के आगे सीरिया और उसके पड़ोसी यूनानी राज्यों को हड़पने में तब उन्हें कौन रोक सकता था ? संतोष वस्तुओं की विजय के हितकारी परिणामों से उन्होंने स्वयं ही प्रति द्वारा धर्म-विजय का आकांक्षी बना दिया था-” पिति धम्म विजय- प्रीति: धर्म विजये ” ( 13वां शिलालेख, कालसी पंक्ति-13 ) अपने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र को भी उन्होंने यह राजाज्ञा ज्ञापित की थी कि विजय की इच्छा होने पर वे शांति लघुदंडता में रुचि लें और उसी को विजय अथवा धर्मविजय माने – ”  ईय धम्मलिपि लिखिता किति पुता पतोता में असू नवम विजयम विजयम  विजयविय मनीष षयकषि नो  विजयषि खंती चा लहु दण्डता चा लोचेतू तमेव चाम विजयन मनतू ये धमविजये  ( कालसी शिलालेख 13,  पंक्ति 15 -16 ) “

आठवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि देवानांप्रिय उपाधि उनकी न निजी सूझ थी और न ही नवाचार था, उनके पूर्व के राजा भी देवानांप्रिय विरुद से प्रख्यात रहे I सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तंभलेख समस्त भारतवर्ष में मिलते हैं I शिलालेखों द्वारा उनके दो प्रकार से राज्य की सीमाओं का ज्ञान होता है I यह तो जिन स्थानों पर वे पाए जाते हैं यानी शिलालेखों और दूसरा शिला और स्तंभों की लेखमाला से I इन आधारों पर सम्राट अशोक के साम्राज्य का विस्तार का पता चलता है I  उत्तर की तरफ दृष्टिपात करने से चतुर्दस शिलालेखों की तीसरी प्रति कालसी नामक एक गांव में उपलब्ध होती है I कालसी देहरादून जिले में है और यह गांव चकरोता के रास्ते में पड़ता है I यह उसी जगह पर पाई गई है जहां से यमुना अपने जन्मदाता हिमालय की गोद से विदा लेती है I पश्चिम की ओर चलते हुए हमें चौथी और पांचवी दो प्रतियां उपलब्ध होती हैं  I इनमें से एक मनशेरा में पाई गई है I यह एबटाबाद से 15 मील की दूरी पर उत्तर हजारा जिले में है I दूसरी प्रति पेशावर जिले के
शाहबाजगढ़ी नामक स्थान पर पाई गई है I शाहबाजगढ़ी पेशावर के उत्तर पूर्व में 40 मील की दूरी पर है I यहां से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए पश्चिमी किनारे पर पहुंचकर एक और प्रति गिरनार (जूनागढ़ ) के समीप सौराष्ट्र काठियावाड़ में मिलती है I ये लेख सुरम्य झील के ऊपर एक पाषाण पर खुदे हैं I रुद्रदमन ( 150 ईस्वी ) के लेख से विदित होता है कि यह झील रेवा और उरायत पहाड़ियों पर तथा अन्य नदियों के पानी को रोककर मौर्य राजाओं द्वारा निर्मित की गई थी I
दूसरी प्रति सोपारा थाणे जिले में मिली है I यह मुंबई से 37 मील उत्तर की ओर है I  14वें शिलालेखों की एक दूसरी प्रति आंध्र प्रदेश में कुरनुल जिले में एररगुडी नामक स्थान पर उपलब्ध हुई है I दूसरा शिलालेख
धौली से प्राप्त हुआ है I धौली, उड़ीसा के पुरी जिले में भुवनेश्वर के पास स्थित है I एक अन्य प्रति जोगुडा में मिली है I जोगुडा उड़ीसा के गंजाम जिले में ऋषिकुल नदी के ऊपर स्थित है I इसके अलावा गौण शिलालेखों की प्रतियां कर्नाटक के उत्तर मैसूर के चितलदुर्ग जिले में सिद्दपुर, जतींग, रामेश्वर और ब्रह्मगिरी आदि स्थानों पर पाई गई है I मध्यप्रदेश में जबलपुर के पास रूपनाथ नामक एक तीर्थस्थल है, यहां से भी गौण शिलालेख की प्रति उपलब्ध हुई है I

बौरात, जयपुर राजपूताना में भी गौण शिलालेख मिले हैं I बौरात की एक दूसरी पहाड़ी आबरू में भी गौण शिलालेख की एक प्रति मिली है I इसके अलावा आंध्रप्रदेश के मस्की नामक स्थान पर गौण शिलालेख उपलब्ध हुआ है I
शिलालेखों की तरह स्तंभ लेख भी साम्राज्य के सुदूर स्थानों पर स्थापित किए गए थे I पहला स्तंभ लेख अंबाला के पास तोपरा में और दूसरा- मेरठ में I माना जाता है कि इन दोनों स्तंभों को दिल्ली का सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक बड़ी कठिनाई और कोशिशों के बाद वहां ले गया था I इन स्तंभों को ले जाने के लिए 42 पहियों की गाड़ी बनाई गई थी I प्रत्येक पहिए पर रस्सी बांध कर   उसे खींचने के लिए दो सौ आदमी तैनात किए गए I
तीसरा स्तंभ कौशांबी में खड़ा किया गया था I इस स्तंभ को मुगल बादशाह अकबर कौशांबी से हटाकर इलाहाबाद ले गया I चौथा- स्तंभ लौरिया अरेराज ( चंपारण जिले के राधिया नामक स्थान पर ) में I पांचवा और छठा – स्तंभ लौरिया नंदनगढ़ और रामपुरवा (चंपारण जिले में ) में था I कुछ शिलालेख जिन्हें इतिहासकार गौण स्तंभ लेख मानते हैं, वे बनारस के पास सारनाथ, नेपाल के रूमिनिंदी और निगलीवा में पाया गया I

इन शिलालेखों, गौण शिलाभिलेखों, स्तंभों और गौण स्तंभों के इस विस्तृत भौगोलिक विभाजन से स्पष्ट है कि अशोक का साम्राज्य अत्यंत विशाल था I उसके शासन में सूर्य की प्रखर स्वर्णिम किरणें, हिमालय के श्वेत मस्तक का आलिंगन करती हुई समुद्र के अधरों का चुंबन करती थी I यही कारण है कि चतुर्दश शिलालेख में सम्राट अशोक गौरव के साथ कहते हैं – ” मेरा साम्राज्य अत्यंत विस्तृत है और पृथ्वी ( संपूर्ण विश्व ) मेरे अधिनस्थ है I “

शिलाभिलेखों और स्तंभों लेखों के अतिरिक्त स्तूपो से भी सम्राट अशोक के साम्राज्य के विस्तार पता चलता है I सम्राट अशोक को जब ज्ञात हुआ कि धर्म के 84 हजार मत या अभिप्राय है तो उन्होंने प्रत्येक मत या अभिप्राय को एक-एक बिहार समर्पित करने का निश्चय किया I 84 हजार विहारों के लिए 90 हजार घोड़े एवं कोटि ( लाख) मुद्राएं भेज कर स्थानीय राजाओं द्वारा जंबूद्वीप के 84 हजार नगरों में बिहार बनवाए और पाटलिपुत्र ( पुष्पपुर ) के ” अशोकराम विहार ” का कार्यभार अपने ऊपर लिया I इसी घटना को चीनी यात्री फाह्यान ने अपने शब्दों में लिखा है I फाहियान के शब्दों में – ”  अशोक 8 स्तूप को नष्ट कर उनकी जगह 84 हजार स्तूप बनवाना चाहता था I ” सम्राट अशोक द्वारा निर्मित कुछ स्तूप का कश्मीर और नेपाल में पाया जाना, इस बात का प्रमाण है कि यह दोनों देश अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत थे I कल्हण की ” राजतरंगिणी ” के अनुसार अशोक कश्मीर का सम्राट था I कश्मीर की राजनगरी ( श्रीनगर ) का निर्माण अशोक ने ही करवाया था I

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा के दौरान सम्राट अशोक निर्मित स्तूप उत्तर पश्चिम में जलालाबाद काफिस ( काफिरस्तान ) में देखा था I अशोक के काल का स्तूप ताम्रलिप्ती में भी मिला है I इससे ज्ञात होता है कि बंगाल भी अशोक के साम्राज के अंतर्गत था I ताम्रलिप्ती ( बंगाल ) प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध बंदरगाह था I दक्षिण के यात्री प्राय: इसी बंदरगाह से सामुद्रिक यात्रा किया करते थे I
ह्वेनसांग को समाताता ( ब्रह्मपुत्र का डेल्टा ) की राजनगरी, पुण्ड्रवर्धन ( उत्तरी बंगाल ), कर्णसवर्ण ( वर्तमान वर्धमान ),  वीरभूमि, मुर्शिदाबाद, चोड़, द्रविण आदि में अशोक निर्मित स्तूप मिले थे I इन स्तूप का पाया जाना, उनके साम्राज्य के सीमांकन को परिलक्षित करता है I महावंश और राजशास्त्र के अनुसार जहां स्तूप पाए गए हैं, वो राजा के अधीनस्थ होते हैं I उन दिनों राजा अपने अधीनस्थ प्रदेशों में ही स्तूप का निर्माण करवाते थे I

द्वितीय शिलालेख ( गिरनार ) में स्पष्ट वर्णन है – ” देवताओं के प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्य और अन्य प्रदेशों में जैसे चोड़, पांडय, सत्यपुत्र ( सत्यपुत्त ),  केरलपुत्त और ताम्रपर्णि प्रदेशों में तथा यवनराज  और अन्य राजा जो उस एंटीओकस
के पड़ोसी राजा हैं ( वहां ) और प्रत्येक जगह दो प्रकार की चिकित्सा ( मनुष्यों की चिकित्सा और पशुओं की चिकित्सा ) का प्रबंध करवाया है I ”
सम्राट अशोक की गौरव गाथा भारत और सिंहल  (श्रीलंका ) के परवर्ती राजाओं ने किया, जिनके प्रमाण भी उपलब्ध हैं I अशोक की स्मृति में अंकित कुछ महत्त्वपूर्ण शिलालेखों में रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख ( 150 ईस्वी ) में ” अशोकस्य मौर्यस्य  लिखा गया है I कन्नौज के सम्राट गोविंद चंद ( सन 1114 – 54 ईस्वी ) की रानी कुमारी देवी के सारनाथ लेख में ” धर्माशोक नराधीपस्य ” लिखा हुआ मिलता है I धम्मचेती के लेख में भी ” धर्माशोक ” लिखा पाया गया है I इसी तरह बोधगया के प्राप्त ब्राह्मी लेख ( 1295- 98 ) पर जंबूद्वीप के अधिपति ” श्री धर्माशोक ” जिसने 84 हजार चत्यों को बनवाया, लिखा हुआ मिला है I

जाहिर है इतिहासकारों ने यूँ ही सम्राट अशोक को धर्मराज घोषित नहीं किया है I

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