गुरुदक्षिणा

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गुरुदक्षिणा

 डा.सीमा रानी —

गुरु -शिष्य परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। गुरु का कर्तव्य है शिष्यकोतराशना,निखारना पखारना। कालिमा को हर लेना । उसके व्यक्तित्व को शीतलता और प्रकाश से भर देना चन्द्रमा  की तरह ।

परंतु इतिहास साक्षी है कि कभी-कभी शिष्य को गुरु का कोपभाजन भी बनना पड़ा। एक गुरु को एक योग्य शिष्य की प्रतीक्षा रहती है तो एक शिष्य को भी महान गुरु की तलाश रहती है। वैसे आरुणिनचिकेता,राम, कृष्णअर्जुन एकलव्यकी कथा से कोई वंचित नहीं है परंतु इसी परंपरा में एक था अहिंसक जिसका नाम कम लोग जानते हैं या जानते हुए स्वीकार नहीं करते।

उसके जन्म के समय ज्योतिषों  की भविष्यवाणी से विचलित उसके माता पिता ने नवजात शिशु का नाम करण किया ‘अहिंसक ‘ ।बालक जन्म  से   ही  कुशाग्रबुद्धि   का सर्वगुणसंपन्न, समस्त कलाओं में निपुण था। शास्त्र और शस्त्र का बड़ा ज्ञानी अति अनुशासित आज्ञाकारी अनुरागी उदार दयावान वीर योद्धा अहिंसक कब अपने गुरु मणीभद्र की आंखों का तारा प्राणों से प्यारा हो गया किसी को पता न चला।उसका नाम और यश फूलों की खुशबू की तरह गुरुकुल ही नहीं प्रदेश में फैलने लगा। शास्त्र और शस्त्र विद्या में पराजित उसके सहपाठी तिलमिला उठे। अहिंसक शीघ्र ही ईर्ष्या का पात्र बन गया। उसके सहपाठियों ने उसे गुरु जी की नजरों से गिराने के लिए जी जान लगा दिए। प्रतिदिन अहिंसक के विरुद्ध एक नई निंदा और झूठे आरोप से गुरु जी के कान छलनी होने लगे। गुरु जी निर्दोष अहिंसक के लिए सजा निर्धारित करने में असमर्थ थे।

गुरु जी की उदासीनता देखकर छात्रों ने अंतिम हथियार अपनाया -“गुरु जी अहिंसक गुरुमाता पर कुदृष्टि रखता है। उनके सौंदर्य का‌ वह कायल हैं।”छल और कपट ने गुरुजी और अहिंसक दोनों के जीवन को त्रस्त कर दिया। प्राणों से प्यारा निर्दोष अहिंसक का पक्षधर होने के बावजूद घर की लाज और  शिष्य की गरिमा को धूल धूसरित होने से बचाने केलिए गुरु जी को छल कपट और अन्याय का पक्षपाती बनने का दोष शिरोधार्य करना पड़ा।

 स्नातक उत्तीर्ण होने के उपरांत दीक्षा प्राप्ति का समय आया। गुरु दक्षिणा का उल्लास हुलस रहा था। तभी गुरु जी ने अहिंसक के लिए गुरुदक्षिणा स्वरूप प्रतिज्ञा का‌ उद्घाटन किया कि अहिंसक को एक हजार उंगलियों की माला से गुरु का अभिषेक करना होगा।सुनते ही छात्रों में खुशी की लहर दौड़ गई। उधर अहिंसक जिसने सपने में भी किसी का दिल न दुखाया था,एक चींटी तक न मारी थी-उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। माता -पिता, पुरोहित द्वारा ऐसी प्रतिज्ञा को काटने के कितने विकल्प सुझाए गए परन्तु अहिंसक गुरु की आज्ञा पर अटल रहा। सहसा अहिंसक की वीरता क्रूरता में प्रवृत्त होने लगी और प्रदेश त्याग कर बीहड़ जंगल में जा बसा।

दुनिया अंगुलिमाल के नाम से थर्राने लगी। अहिंसक भयानक हिंसक बन गया विख्यात शिष्य कुख्यात डकैत में परिवर्तित हो गया। एक तरफ गुरु की गुरुता प्रभुता में परिणत हो कर लघुता‌ में विलीन हो गई ।दूसरी तरफ शिष्य  की  लघुता, त्याग,  समर्पण ,उत्सर्ग हो जाने की हठ की पराकाष्ठा ने उसके जीवन में दिव्य घटना को जन्म दिया।नौ सौ निन्यानवे ऊंगली की माला लिए ऊंगलिमाल अपने अनुष्ठान की पुर्णाहुति के लिए अंतिम उंगली के लिए बेसब्री से पथिक की  राह ताक रहा था। तभी उसने अपनी मां को आते देखा।वह दुविधा में पत्थर बना देखता रह गया । मां के करीब आने से पूर्व एक अन्य पथिक को अपनी तरफ आता देख उसके होंठों पर कुटिल मुस्कान तैर गई। आंखों में विजय की चमक खेल गयी।

उसके समक्ष बुद्ध अवतरित हुए और उनकी दिव्य दृष्टि ने हत्यारे के अंतर्मन में छिपी करुणा की‌ बूंद का स्पर्श कर लिया। बुद्ध के स्पर्श से बूंद महासागर में परिणत हो गया। हत्यारे ने पूछा -‘पथिक! तुम्हें मुझसे भय नहीं लगता?’बुद्ध ने कहा कि तुम जो कर रहे हो इस में डर की क्या बात है? मैं जो कहता हूं कर के दिखाओ-पेड़ की डाली तोड़ कर दिखाओ। एक अट्टहास के साथ अंगुलिमाल ने पथिक का उपहास किया और झटके से डाली तोड़ी।’अब इसे जोड़ो।‘

‘अब इसे जोड़ो।’अट्टहास पर अट्टहास जंगल कांप उठा ।पशु दुबक गए पक्षी फड़फड़ा उठे।’मूर्ख!टूटी हुई वस्तु भी जुड़ती है?‘

‘जब जोड़ नहीं सकते तो ईश्वर के दिए जीवन को छीनने वाले तुम कौन?’अंगुलिमाल सहसा चुप हुआ। शरीर का रेशा-रेशा ढीला पड़ने लगा। क्रूरता दीनता में परिणत होने लगी। आंखों में आर्द्रता उतर आई। हिंसक अचेत हुआ अहिंसक की चेतना जागृत हुई और बुद्ध के चरणों में निढाल हो गया।एक सच्चे शिष्य का जीवन दिव्य प्रकाश से आलोकित हो गया।।अप्पो दीपो भव के मार्ग पर चलकर बुद्ध के ह्रदय में स्थापित हुआ। एक फड़फड़ाते हुए दीपक की यात्रा एक गुरु से निकलकर दूसरे गुरु के प्रकाश पूंज में समाहित हो गई।

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