कहानी गङ्गा मैया की

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माधुरी भट्ट

गङ्गा दशहरा पर पतित पावनी माँ गङ्गा को नमन।

मातः शैलसुता सपत्नि वसुधा शृंगारहारावलि।

स्वर्गारोहिण वैजयन्ति भवतीं भागीरथीप्रार्थये।।

त्वत्तीरे वसतस्त्वदम्बू पिवत स्त्वदिचिशु प्रेखत:।

स्त्वन्नाम स्मरत स्त्वदर्पित दृशस्यानमे  शरीरव्यय:।

वैसे तो गङ्गा मैया का उद्गम स्थल गोमुख माना जाता है। यह स्थान हिमालय के बीच उस सबसे  बड़े ग्लेशियर के किनारे है जो गंगोत्री  ग्लेशियर के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान 13,570 फीट की ऊँचाई पर है।यहाँ पर नीलमणि के सदृश्य  बर्फ की गुफ़ा से गङ्गा की धारा बाहर को प्रवाहित होती है,जोचौड़ाई में लगभग 10 या 15 फीट और गहराई में 3 या 4 फीट से अधिक नहीं है। धारा का जल  गुफा के अंदर से तीव्र वेग से बाहर आता है।

माना जाता है कि गंगाजी गऊ मुख जैसी आकृति वाले हिमशिखर से निकलती हैं। इसीलिए उनका उद्गम स्थल गोमुख माना जाता है।लेकिन गहराई से सोचने पर यह अंदेशा जताया जाता है कि  यदि गोमुख से गङ्गा निकल रही है तो जून के महीने में   वहाँ पर पानी  गन्दला कैसे दिखाई दिया।लेकिन उससे आगे का मार्ग अगम्य है जिसने भी आगे बढ़ने की कोशिश की वह अगम्य होकर ही रह गया।गंगा  का उद्गम निश्चित ही सतोपथ  कांठे से पश्चिमी ढाल पर है जिसके पूरब की ओर  माणा की घाटी से बद्रीनाथ के ऊपर तक बर्फ़ से ढका रहता है और केदारनाथ के कांठे से उत्तर के ढाल से मिला हुआ है जिसके दक्षिणी ढाल पर केदारनाथ विराजमान हैं। ये तीनों तीर्थ सीधी दूरी पर एक-दूजे से 5 या 6 मील के  फासले से अधिक दूरी पर नहीं है ।

गंगा का इतिहास बहुत प्राचीन है, जो पुराणों में इस प्रकार है–जब सतयुग में राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ ठहराया  था तब इन्द्र को अपना सिंहासन छिन जाने का भय हुआ।उसने यज्ञ में विघ्न डालने के लिए  अभिवेषित घोड़े को चुरा लिया और कपिलमुनि जो साधनारत थे ,उनके आश्रम में बाँध दिया। इधर राजा सगर ने अपने 60 हज़ार पुत्रों को घोड़े की ढूंढ में भेजा। उनके द्वारा सर्वत्र ढूंढ लिए जाने के बाद अंत में  लौटते समय कपिलमुनि के आश्रम में घोड़े को बंधा देख बिना बिचारे मुनि को संताना शुरू कर दिया।हठात मुनि की समाधि भंग हो गई और कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में  जल कर 60 हज़ार पुत्र जलकर राख की ढेरी में   बदल गए।

सूचना मिलते ही राजा सगर ने मुनि से क्षमा याचना की, तब कपिल को योगबल से ज्ञात हुआ कि यह सब तो इन्द्र का किया धरा है।सगरपुत्रों ने अज्ञानतावश यह दण्ड पाया है।इनकी आत्मा की शांति के लिए जब स्वयं स्वर्ग से गङ्गा इस राख की ढेरी से होकर गुजरेंगी तब तत्काल उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।

निराश होकर राजा सगर लौट आए और अपने फाटक पर  बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया कि’मेरे वंशधर राजाओं में से यदि किसी को सामर्थ्य हुई तो वह ब्रह्मलोक से गङ्गा जल लाकर मेरे 60 हज़ार पुत्रों का उद्धार करे जिनकी राख की ढेरी कपिलमुनि के आश्रम में पड़ी है।“

सगर की तीसरी या चौथी पीढ़ी में  भगीरथ का जन्म हुआ।फाटक पर लिखे शिलालेख को पढ़ते ही प्रण लिया कि” जबतक अपने पितरों का उद्धार नहीं करूँगा तब तक कदापि राज नहीं करूँगा।” आहार -निंद्राऔर भय को त्याग  हिमश्रृंग पर गङ्गा प्राप्ति के लिए  इतने कठिन तप से प्रभावित हो गङ्गा जी ने ब्रह्मलोक से आकर दर्शन दिए और कहा- “वत्स मैं मृत्यु लोक में उतरने के लिए तैयार हूँ लेकिन मेरे प्रचण्ड वेग से धरा के खण्ड खण्ड हो जाएँगे।एक मात्र महादेव ही मेरे प्रचण्ड वेग को अपनी शक्ति से थाम सकते हैं।तब भगीरथ के उग्र तप से  प्रसन्न होकर भोलेनाथ की समाधि टूट गई और आसन डगमगाने लगा। शिवजी  ने दर्शन देकर वर माँगने को कहा।भगीरथ द्वारा स्तुति करने और ब्रह्मद्रव्य की बात सुनकर डमरू बजाकर नृत्य करने लगे। अपनी जटा फैलाकर दोनों हाथों से कमर को सहारा देकरत्रिशूल को कमर के साथ आढ़े लगाकर  गङ्गा की प्रतीक्षा करने लगे।      हठात बिजली की चमक के साथ  गर्जना करती हुई इठलाती -बलखाती गंगा की धारा का अवतरण हुआ। शिवजी ने फुर्ती से गङ्गा की धारा को अपनी जटा में थम लिया।गङ्गा की धारा मसलती की माला के समान शोभायमान होती हुई  चक्कर खाने लगी।भोलेनाथ उस त्रिलोक्य  ब्रह्मनिधि को प्राप्त कर ऐसे बेसुध हुए कि भगीरथ को  देने की बात  ही भूल गए। उस दिन वैशाख मास की शुक्ला सप्तमी थी ,इसी से उस दिन को गंगाजी की जन्म तिथि मानकर गङ्गा सप्तमी के नाम से मनाया जाता है।

शिवजी गङ्गा जी को पाकर अंतर्ध्यान हो गए तब भगीरथ ने फिर उग्र तप कर शिवजी को प्रसन्न किया।तब ख़ुश होकर शिवजी ने एक दिव्य रथ यह कह कर भगीरथ को दिया-“वत्स तेरे पराक्रम और कुल को धन्य है।तू रथ पर बैठ कर आगे- आगे चल और गङ्गा की धारा स्वतः ही  रथ के पीछे- पीछे चली आएगी।जैसे ही  शिवजी ने धारा को छोड़ा,वह 10 धारा होकर भ चली।केवल मोक्ष.धारा भगीरथ के पीछे चलने लगी।इसी से उस धारा का नज़्म भगीरथी हुआ।अन्य 9 धाराएँ भी क्रमशः देवप्रयाग तक  भगीरथी में सम्मिलित हो गईं।

जिस स्थान पर भगीरथ ने एकदिन विश्राम किया और षोडशोपचार से गंगाजी का पूजन किया उस परमपावन क्षेत्र को गंगोत्री धाम नाम से जाना जाता है।जिस दिन शिवजी ने गङ्गा की धारा भगीरथ को प्रदान की थी उस दिन ज्येष्ठ मास की शुक्ला दशमी थी।इसलिए वह तिथि गङ्गा दशहरा के नाम से जानी जाती है।

आज मोक्ष दायनी गङ्गा मैया को स्वार्थी इंसान ने अपने पापों  से इतना  दुःखी कर दिया है किअब भूलोक में उसका दम घुट रहा है।यदि मानव अभी भी नहीं सम्भला तो प्राणदायिनी-मोक्ष दायनी माँ कुपित होकर अपना रौद्र रूप धारण करने में जुट जाएगी।

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