कबीर संगति साधु की, जो करि जाने कोय….

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डॉ ध्रुव कुमार

गंगा किनारे वाराणसी की पावन भूमि पर आज से लगभग सवा 600 साल पहले लहरतारा ग्राम के निकट कबीर का प्राकट्य हुआ माना जाता है I कहा तो यह भी जाता है कि एक जुलाहे दंपत्ति ने नदी के तट पर एक बिलखते हुए नन्हें शिशु को देखा और उसे उठाकर अपने घर ले आए, यही बालक अपनी वाणी से समाज को झकझोर देने वाला कबीर यानी संत कबीर दास के नाम से प्रसिद्ध हुआ I माना जाता है कि वे कभी विद्यालय नहीं गए । लेकिन भक्तिकालीन इतिहास में कबीर को आध्यात्मिक क्रांति का जनक कहा जाता है I  कबीर की अनमोल वाणी या अज्ञान तिमिर का नाश कर एक नए सवेरे की ओर संकेत करती है I यह उनके ज्ञान उपaदेश का ही चमत्कार था, जिसने सदियों से चली आ रही कुरीतियों और पाखंड को खंड-खंड कर दिया I

” मसि कागज छुयो नहीं, कलम गही नहीं हाथ ।” ध्यान की मस्ती में गाते – गाते जो शब्द उनके मुंह से निकल जाते, वही कविता का रूप धारण कर लेता। वे मानवता प्रेमी संत थे  और भेदभाव की संकीर्णता से ऊपर उठकर मानवीय भावनाओं का अपनी साखियों द्वारा जन-जन में प्रचार और प्रसार किया I उनकी कवित- वाणियों में कर्म, भक्ति, गुरु-शिष्य, सत्य, मोह, कथनी- करनी, दया, काम, क्रोध आदि के नए अर्थ और परिभाषा से परिचय होता है I

कबीर की माने तो मनुष्य के जीवन में चरित्र का बड़ा महत्व है। कहा भी गया है ” धन गया, तो कुछ भी नहीं गया, स्वास्थ्य गया, तो थोड़ा बहुत गया और यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ नष्ट हो गया। इसी तरह मनुष्य के चरित्र निर्माण में संगत का असर होता है I कहा तो यह भी जाता है कि यदि सिंह का शावक भी जब भेड़ों के समूह में रहने लगता है तो उसका रहन-सहन, आचार- व्यवहार भी भेड़ जैसा ही हो जाता है I इसी तरह मनुष्य की भी जैसी संगत होगी, उसके संस्कार भी उसी रूप में विकसित होंगे l यदि कोई दुष्ट की संगत करता है तो वह दुष्ट स्वभाव का हो जाता है, इसके विपरीत संत की संगत करने पर साधु स्वभावी हो जाता है I यानी संगत से ही संस्कार विकसित होते हैं, प्रभावित होते हैं I

भारतीय भक्ति परंपरा के युग पुरुष कबीर जीवन में आचरण की शुद्धता पर विशेष बल देते हैं। वे इसके लिए कुसंगति यानी बुरे लोगों से दोस्ती न करने की सलाह देते हैं। गलती से यदि ऐसे लोगों से दोस्ती हो गई हो तो उसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए और अच्छे लोगों की संगति में ही जाना चाहिए।

वे सत्संगति के महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं- ” सज्जनों की संगति से ही मानव शुद्धाचरण की ओर प्रवृत्त हो जाता है और इसी से मानव की दुर्मति का विनाश होकर उसे कुमति की प्राप्ति होती है।“

” कबीर संगति साधु की,

 निज प्रति कीजै जाय ।

दुरमति दूर बहावसी,

 देसी सुमति बताय।। ”

   कबीर कुसंग न कीजिये, पाथर जल न तिराय I

कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिर भाय I I

कबीरदास कहते हैं कि संत जनों की संगत प्रतिदिन नियम से करनी चाहिए इससे दुरमति कुमति दूर होगी तथा सद्बुद्धि मिलेगी अर्थात संत जन के दर्शन मात्र से ही जीवन के दुष्प्रभाव दूर हो जाएंग

                                                                कबीर संगति साधु की, जो करि जाने कोय I

                                                                सकल बिरछ चंदन भये, बांस न चंदन होय II

वे कहते हैं कि संत संतों की संगत करने वाला ही उसके महत्व को समझ सकता है जिस प्रकार चंदन का वृक्ष अपनी गंध से आसपास के सभी वृक्षों में अपनी गंध फैला कर उन्हें भी चंदन के वृक्ष होने जैसा आभास लाता है, वैसे ही संत जनों की संगत से जीव में उनके गुणों का प्रभाव आ जाता है I किंतु बांस के वृक्ष में यह गुण नहीं होता I वह ऊपर से जितना कठोर दिखता है, अंदर से उतना ही खोखला होता है I

वे सदाचार को भक्ति के प्रमुख अंग के रूप में स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि सदाचार की प्राप्ति के लिए आचरणों को शुद्ध करने की आवश्यकता है और आचरण की शुद्धता तभी संभव है जब एक साधक संपूर्ण विकारों को उत्पन्न करने वाली दो वस्तुओं कनक और कामिनी का परित्याग करे।  ” एक कनक और कामिनी, दुर्गम घाटी दोय ” यानी कनक और कामनी भक्ति मार्ग के रास्ते के सबसे बड़े विध्न हैं। यह दोनों ही मानव के शत्रु हैं और मानव के तीन सुखों का विनाश का कारण बनते हैं। इसके कारण मानव भक्ति, मुक्ति और ज्ञान में प्रवेश नहीं कर पाता ।

कबीर खूब घूमे और सभी प्रकार के लोगों के संपर्क में रहे। वे सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उनके जन्म, जीवन और महाप्रयाण संबंधी चर्चाओं का प्रचार जनसाधारण में उनके जीवनकाल में ही हो गया था।

उनकी वाणी ( कविताएं )  ” बीजक ” नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं – रमैनी,  सबद और साखी। उनके नाम पर एक संप्रदाय भी शुरू हुआ जो ” कबीर – पंथ ” कहलाता है। वे जीवन भर हिंदू – मुसलमान की एकता के लिए उत्कट प्रयत्न करते रहे। उन्होंने बड़ी ईमानदारी से दोनों धर्मों और उनके अनुयाइयों की कमियों को सबके सामने रखा।

वे केवल कटु आलोचक ही नहीं थे, बल्कि एक सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जो कुछ कहा निष्पक्ष होकर कहा । उन्होंने संपूर्ण समाज में व्याप्त वैमनस्य का विरोध करके उसमें साम्य स्थापित करने की कोशिश की। परोपकार, सेवा, क्षमा, दान, धैर्य, अहिंसा आदि का प्रचार करके जनजीवन में शुद्धाचरण और सात्विकता की वृद्धि पर जोर दिया। मिथ्या आडंबर और पाखंडों का विरोध किया और आंतरिक साधना और अंतःकरण की शुद्धि के महत्व को प्रतिपादित किया I नैतिकता और सदाचार की बात की। निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना का प्रचार करके जनता में व्याप्त कटुता और विषमता को दूर करते हुए मानव मात्र के हृदय में आध्यात्मिकता का बीजारोपण किया।

छह सौ साल पहले कही गई उनकी बात भारतीय समाज के लिए आज भी अनुकरणीय है । मौजूदा काल में मनुष्यों के लिए नैतिकता और सदाचार सबसे बड़ी जरूरत है जिससे न सिर्फ भारतीय समाज का बल्कि पूरी दुनिया का भला हो सकता है।

ऐसे युगांतकारी महान विचारक कबीर को उनकी जन्म जयंती पर शत-शत नमन

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