आवाजें कभी नहीं मरतीं..

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अर्चना अनुप्रिया

एक तहलका सा मचा है हर जगह.. अविश्वसनीय है यह खबर.. यह कैसे हो सकता है भला?.. वह आवाज, जिसे सुन-सुनकर हम बड़े हुए,जो हिंदुस्तानी गायन संस्कारों की अमिट पहचान है एकदम से खामोश कैसे हो सकती है? आवाजें कभी खामोश होती हैं भला! घूमती रहती हैं, कानों में,दिलों में, चौक चौराहों पर, बाजार में, मेले में, उत्सव में, रुदन में– हर जगह। एक सुरीली सी हवा पनपती है जिस आवाज से इस देश में, जिसकी थिरकन से धड़कते हैं अरबों दिल और वही अगर खामोश हो तो भारत मूक न हो जाएगा..? दो ही प्रमुख आवाजें तो चर्चा की जाती हैं हिंदुस्तानी संगीत के संस्कारों की–एक, कृष्ण की बांसुरी और दूसरी,लता की रागिनी। इन दो आवाजों से ही बनती है हमारी भारतीय संस्कृति की तरंगें, जिन्होंने दुनिया में भारत की एक अलग पहचान बनाई है। वे कभी खामोश नहीं हो सकतीं। हाँ, लता दीदी का शरीर बूढ़ा था तो आत्मा ने घर बदल लिया है अपना। उनकी आवाज तो वह पंचजन्य शंख की गूंज है, जो ब्रह्मांड में गूंजती ही रहेगी अनवरत, अनादि काल तक।सुर साम्राज्ञी, सुर कोकिला, भारत की नाइटेंगल– न जाने संगीत के कितने संज्ञाओं से नवाजा गया है सुर की देवी,लता मंगेशकर को। गुलजार साहब उन्हें प्यार से “बेगम” कह कर बुलाया करते थे। लता दीदी भी उन्हें तोहफे में अक्सर बुद्ध की मूर्ति भेंट किया करती थीं। गुलजार साहब के न जाने कितने गीतों को लता दीदी ने अपनी आवाज में अमर बना दिया। उन्हीं की तरह न जाने कितने गीत कारों के गीतों और शायरों की गजलों को उन्होंने अपनी मीठी, कोकिला आवाज से सुरों में पिरो दिया। 70 वर्षों से हिंदी संगीत जगत की साम्राज्ञी अपनी आवाज से अरबों दिलों पर राज करने वाली लता दीदी ने कई पीढ़ियों के लिए आवाज दी।उन्हें भारत रत्न, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और दादा साहब फाल्के जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया या यूं कहें कि उन्हें इन पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किए जाने पर इन पुरस्कारों के ओहदे में भी दोगुनी बढ़ोतरी हो गई। लता मंगेशकर संगीत के साध्वी हैं।उन्हें पुरस्कारों से क्या लेना? यह तो हम थे कि उन्हें सम्मानित करके खुश हो लिए।

लता दीदी ने अपना पहला गाना सन 1942 में एक मराठी फिल्म के लिए रिकॉर्ड किया था। उस वक्त वह केवल 13 वर्ष की थीं। यह बात अलग है कि यह गाना फिल्म से बाद में काट दिया गया था। परंतु यहां से कोकिल कंठ की संगीत यात्रा आरंभ हो चुकी थी। उनके पिता एक थियेटर चलाते थे और लता जब बहुत छोटी थीं तभी वे चल बसे थे। सभी की जिम्मेदारी उठाते हुए शुरुआती दिनों में लता दीदी ने कुछ फिल्मों में भी काम किया था क्योंकि उन्हें पैसों की जरूरत थी। आरंभ में उस दौर की गायिका सुरैया और शमशाद बेगम जैसे कलाकारों से लता दीदी को कड़ी टक्कर भी मिली। लता दीदी का सबसे बड़ा मुकाबला गायिका नूरजहां से माना जाता है। मशहूर म्यूजिक राइटर, राजू भारत जी ने तो नूरजहां से तुलना करते हुए लता पर सवाल तक उठा दिया था।परंतु, बहती नदी, चलती हवा को कौन रोक पाया है भला! धीरे-धीरे लता दीदी की आवाज ने सबको अपने मीठे मोहपाश में बांध लिया और वह हिंदुस्तान की आवाज बन गयीं। लता दीदी ने सिर्फ हिंदी और उर्दू भाषाओं में ही नहीं गाया बल्कि, देश में 36 भारतीय भाषाओं जैसे, मराठी,तमिल, भोजपुरी, कन्नड़, बंगाली जैसी कई भाषाओं में अपनी आवाज देकर सुर सामग्री कहलायीं। उनका गाना-“ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी”- देश प्रेम का एक ऐसा जज्बा जगाता है कि आज भी सुनने वालों की आंखें नम हो जाती हैं। इसी गाने की फरमाइश प्रधानमंत्री नेहरु जी ने की थी और सुनकर रो पड़े थे।

लता मंगेशकर अपने पिता दीनानाथ मंगेशकर की दूसरी पत्नी शेवंती की संतान थीं। पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात उनके पिता ने पत्नी की बहन से विवाह किया था। लता दीदी के बचपन का नाम “हेमा” था परंतु,बाद में, उनके पिता ने एक नाटक की महिला पात्र लतिका के नाम पर उनका नाम बदलकर लता रख लिया और इस तरह वह बन गयीं लता मंगेशकर।गोवा के पैतृक गांव मंगेशी को अपना सरनेम बनाते हुए उनका नाम लता मंगेशकर पड़ा था। सादगी में रहती हुई, साध्वी का जीवन व्यतीत करती हुई लता दीदी ने संगीत जगत को वह मुकाम दिया जिसने भारतीय सिनेमा और संगीत को संपूर्ण विश्व में अमिट स्थान पर बैठा दिया। भारतीय संगीत और संस्कार एकाकार हो गए,बच्चे-बच्चे की जुबान पर थिरकने लगे और लता दीदी भारत की गौरवशाली पहचान बन गयीं। यह भी एक संयोग ही है कि बसंत पंचमी के दूसरे दिन जब मां सरस्वती की मूर्ति पृथ्वी से  विदा लेती है,तब उन्होंने सुर सामग्री को अपने साथ कर लिया। सही मायने में,भारत रत्न, लता दीदी ने अपनी आवाज और अपनी सुर साधना से छोटी उम्र से ही गायन में महारथ हासिल करते हुए न जाने कितनी नायिकाओं और कितने नायकों के बचपन के गीत गाए। पिछली पीढ़ी ने जहां लता के शोख और रूमानी आवाज का लुत्फ उठाया वहीं मौजूदा पीढ़ी  उनकी समुंदर की तरह ठहरी हुई परिपक्व गायकी को सुनती हुई बड़ी हुई।रहती दुनिया तक उनकी सुरीली आवाज और गायन की प्रेम और संस्कार की तरंगे प्रवाहित होती रहेंगी।

लता मंगेशकर कहीं नहीं गयीं।वह बसी हुई हैं भारत की मिट्टी में, संस्कारों में, संस्कृति में और अनंत काल तक प्रेरित करती रहेंगी लोगों को, देश प्रेम को, ईश्वरीय भक्ति को और संपूर्ण हवाओं को, जो हमें छूकर गुजरती हैं और हमारे मन के तारों को झंकृत कर देती हैं ।आवाज ही पहचान है और अआवाजें कभी नहीं मरतीं.. शाश्वत हैं, अमर हैं। लता दीदी, आप कहीं नहीं गयीं, हमारे साथ ही हैं और हमेशा रहेंगीं।नमन दीदी..नमन देश की गौरव.

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