“अवधूत शिव की अर्चना” (भाग 4) ‘नटराज राज नमो नमः..!’

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डॉ.नीता चौबीसा,

बांसवाड़ा राजस्थान

नटराज शिव का आविर्भाव के उस स्वरूप की महिमागान है जिसमे ब्रह्मांडीय ऊर्जा का समष्टि एकीकृत रूप समाहित है जो विनाश में भी विकास का बीज अंकुरित करते है जो विंध्वस में भी सृजन की संभावना खोजते है अतः नटराज शिव के सभी प्रतीकों का अर्थ बहुआयामी और बहुपक्षीय है। नटराज के स्वरूप में सम्मिलित सभी प्रतीक चिन्ह भी अपने आप में बेहद विशिष्ट अर्थों को समाहित किए हुए हैं। शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भांति मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्याएँ हैं। नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति के चार भुजाएँ हैं, उनके चारों ओर अग्नि का गोलाकार घेरा हैं। नटराज के एक पैर के नीचे जो दानव दबा रहता है उसका नाम है “अपस्मार”। उसका एक नाम “मूयालक” भी है। अपस्मार एक बौना राक्षस था जो स्वयं को सर्वशक्तिशाली एवं दूसरों को हीन समझता था। स्कन्द पुराण में उसे अमर बताया गया है। उसे वरदान प्राप्त था कि वो अपनी शक्तियों से किसी की भी चेतना का हरण कर सकता था। अपस्मार एक बौना दानव है जिसे अज्ञानता एवं विस्मृति का जनक बताया गया है। इसे अज्ञान जनित एक मानसिक रोग का प्रतिनिधि भी माना जाता है। आज भी मिर्गी के रोग को संस्कृत में ‘अपस्मार’ ही कहते हैं।

योग में “नटराजासन” नामक एक आसन है जिसे नियमित रूप से करने पर निश्चित रूप से मिर्गी के रोग से मुक्ति मिलती है।एक बार ऋषियों व साधुओ को माया के वशीभूत अपनी सिद्धियों पर अभिमान हो गया । स्कन्द पुराण में ऐसा भी वर्णित है कि उन्ही साधुओं ने अपनी सिद्धियों से ही इस अपस्मार का सृजन किया था।अपस्मार को अपनी अपार शक्तियों व अमरता के मद में माता पार्वती की चेतना का हरण कर लिया और शिव पर आक्रमण कर दिया था।तब अवधूत शिव ने सभी का अज्ञान दूर करने हेतु नटराज रूप धारण किया।अपस्मार ने दोनों पर आक्रमण किया और अपनी शक्ति से माता पार्वती को भ्रमित कर दिया और उनकी चेतना लुप्त कर दी जिससे माता अचेत हो गयी। ये देख कर भगवान शंकर अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने १४ बार अपने डमरू का नाद किया। उस भीषण नाद को अपस्मार सहन नहीं कर पाया और भूमि पर गिर पड़ा। तत्पश्चात उन्होंने एक आलौकिक नटराज का रूप धारण किया और अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबा कर नटराज शिव तांडव नृत्य करने लगे। नटराज रूप में भगवान शंकर ने एक पैर से उसे दबा कर तथा एक पैर उठाकर अपस्मार की सभी शक्तियों का दलन कर दिया और स्वयं संतुलित हो स्थिर हो गए। उनकी यही मुद्रा “अंजलि मुद्रा” कहलाई। नटराज ने एक पैर से अज्ञान रूपी अपस्मार बौने दानव को दबा रखा है, एवं दूसरा पाँव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है।क्योंकि अज्ञान और दम्भ स्वयमेव ही बहुत बौने होते है अतः प्रतीकात्मक रूप में इसे बौने दानव से दर्शाया गया है।शिव का उसके ऊपर मग्न होकर एक लय से नृत्य करने को अज्ञानता के ऊपर विजय से जोड़ा गया है। इसी प्रकार उनका दूसरा बायां हाथ उनके उठे हुए पैरों की ओर संकेत करता दिखता है, जिसका अर्थ स्वतंत्रता और नवउठान से है।अर्थात शिव अपने इस स्वरूप द्वारा सार्वभौमिक स्वतंत्रता का उद्घोष करते हैं, जो मनुष्यता के सर्वाधिक गरिमामयी स्थिति का उद्घोषक है।शिव की ये मुद्रा आनंदम तांडवम के रूप में चर्चित है।

शिव का ये नटराज स्वरुप एक आग्नेय गोले में स्थित हैं जिसे “प्रभा मंडल” कहते हैं| यह ब्रह्माण्ड की उस उर्जा को दर्शाता है जिससे सब उत्पन्न होता है और जिसमे सब भस्मीभूत हो जाता है| ये अग्नि- मंडल उर्जा , उष्णता और प्रकाश को एकसाथ दर्शाता है जो हिरण्यगर्भ का भी प्रतीक है जिससे समस्त ब्रह्मांड की रचना हुई है |नटराज का निचला सीधा हाथ अभय मुद्रा में है जिसमे उन्मुक्त नृत्य के उत्तंग अवस्था में शिव की जटाएं अन्तरिक्ष में फैली हुई हैं| जटाओं से संसार को पवित्र करने गंगा उफन कर निकल रही है और फिर शांत होकर संसार की भलाई के लिए सौम्य रूप में बह रही हैं|नटराज के इस स्वरुप में ऊपर के दूसरे हाथ में नटराज ने अग्नि धारण किया हुआ है जो संहार का प्रतीक है|  उत्पत्ति के बाद संहार का कार्य भगवान की ये अग्नि करती है| भगवान का निचला सीधा हाथ अभय मुद्रा में है जो भक्तों को शरण देता है| नटराज की ये अभय मुद्रा शरणागत की अज्ञानता से, बुराइयों से और भय से रक्षा करती है| इस आग्नेय वातावरण में, विषैले सर्पों से युक्त भुजा की जो अभय मुद्रा है वो ये दर्शाती है की अज्ञानता, बुराई और भय सत्य, धर्म और न्याय की शक्ति से रक्षित हैं|नटराज के इस स्वरुप का निचला बायाँ हाथ नृत्य करते हुए निचले पैर की तरफ झुका है जो ये दर्शाता है की कैसी भी परिस्थितियां हों, सदा कर्म में लीन रहें, सक्रिय रहें| साथ ही ये मुद्रा उत्थान और मुक्ति का भी एकसाथ सन्देश देती है|।नटराज के इस विराट स्वरुप में तीन नेत्र हैं – सूर्य, चन्द्र दोनों आँखें और तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र पर जिसे दिव्य चक्षु कहा जाता है| ये तीसरा नेत्र हमें आंतरिक ज्ञान और आत्मबोध का सन्देश देता है|

शिव के इस नटराज रुप में चार भुजाएं हैं जिनके ऊपर के दोनों हाथों में संसार की उत्पत्ति और नाश के चिह्न हैं| ऊपर का सीधा हाथ में डमरू धारण किये है जिसका अर्थ है कि यह आदि शब्द और उत्पत्ति का चिह्न है|महातपस्वी रावण के “शिवताण्डव स्तोत्रम्” के प्रथम श्लोक में इस नटराज तांडव का सुंदरता से वर्णन किया गया है—

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थ

लेगलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥“

अर्थात “वन में बिखरी लताओं की तरह शिव की उलझी हुई विशाल जटाओं से गंगा जी की पवित्र धारा पृथ्वी को पावन कर रही हैं जिस पावन पृथ्वी पर शिव ताण्डव कर रहे हैं|उनके गले में शानदार उन्नत एवं उन्मुक्त सर्प शोभित हैं जो उन के गले को आलंबन करते हुए पुष्प मालाओं की तरह सुन्दर सुसज्जित हैं|उनका डमरू  डमडड डमडड डमडड डमडड की अविरल ध्वनि निकाल रहा है जिसके निनाद से सारा वातावरण उद्घोषित हो रहा है|शिव का ये प्रचंड ताण्डव बहुत ही आवेशपूर्वक और जोशीला है, हे शिव हमारे अन्दर भी इस शुभ ताण्डव का समावेश करें|” शिव तांडव में प्रकृति का सृजन, पोषण, अभय और संहार सब कुछ का समावेश है| नटराज का यह एक प्रकार का कॉस्मिक डांस है जो अज्ञानता, तामसिक शक्तियों और बुराई रूपी राक्षस पर विजय का प्रतीक है तो उल्लास नव सृजन विकास और पल्लवन का हेतु भी है।इतने आग्नेय वातावरण में और इतने प्रचंड नृत्य स्वरुप में भी भगवन के चेहरे पर मंद मुस्कान है जो विकट परिस्थितियों में, विषम समय में हमें शांति और धीरज का सन्देश देती है|यानि अप्रिय सर्जना को अग्नि के द्वारा नष्ट कर शिव भगवान ब्रह्मा को पुनर्निर्माण का आमंत्रण देते हैं।नटराज की लयबद्ध नृत्यरत स्थिति स्वयं में ब्रहाण्ड की लयबद्धता की उद्घोषणा करती है। अपनी इस स्थिति के द्वारा नटराज ये सिद्ध करते हैं बिना गति के कोई भी जीवन नहीं और जीवन के लिए लयबद्धता अनिवार्य है।आनंदम तांडवम की अवस्था संपूर्ण ब्रह्मांड के आनंदित होकर नृत्य करने की अवस्था है, जहां पर अज्ञानता व अहंकार का विनाश तथा पंचमहाभूतों सहित समस्त जैव-अजैव का एकीकरण होता है। शिव के इस विशेष नटराज स्वरूप का अर्थ जितना व्यापक है, उतना ही ग्रहणीय भी है।(क्रमशः)-

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