अफगान संकट और भारत की चुनौतियाँ”

0

डॉ.नीता चौबीसा,

बांसवाड़ा राजस्थान

अफगानिस्तान में सियासत की घड़ी एक बार फिर दो दशक पीछे खड़ी नजर आ रही है जब काबुल के किले पर तालिबान का परचम लहरा रहा है जिस तरह से काबुल का किला ढहा, जिस तरह से वहां सत्ता ने करवट ली है उसने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं।हजारो लोगो का पलायन हो चुका है, देश मे अफरा- तफरी मची है। लोग तालिबान के ख़ौफ़ से भागने पर मजबूर है । भारत ,अमेरिका समेत अनेक देशों ने अपने दूतावास व नागरिक वहां से वापस लौटा लिए है। इसके साथ ही दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया के लिहाज से अंतरराष्ट्रीय सियासी समीकरण भी बदल गए हैं। तालिबान से भारत के साथ-साथ चीन, रूस,पाकिस्तान और ईरान को भी खतरा है। आरम्भ से ही मध्य एशिया का अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रहा है अतः केंद्रीय शक्तियां वहां हर युग मे सक्रिय रही है ऐसे में अब भी रूस चीन अमेरिका जैसे विस्तारवादी ताकते अब भी अपनी शक्ति व नियंत्रण के प्रयास में कहां किस हद तक जाएगी यह आने वाला वक्त ही बताएगा?भारत की शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति स्वयं के आदर्शों मूल्यों पर टिके रह कर भी कई चुनोतियो का सामना करनेको उद्यत है किन्तु यह भी सत्य है कि कई पक्षो पर हमें भी अपनी रणनीति बदलनी होगी।

अब जबकि अफगानिस्तान से हिंदू और सिख समुदाय के अधिकतर लोगों को भारत ‘लौटने’ में मदद कर चुका है किंतु नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर भारत सरकार का जो अब तक अडिग रुख़ देखा गया, उसे देखते हुए अब तक यह साफ़ नहीं हो सका है कि सरकार का दूसरे पीड़ित अफ़ग़ान नागरिकों को लेकर क्या रुख़ रहेगा? यह विचारणीय तथ्य है कि भारत सरकार क्या पहले की भांति ही अब भी अफ़ग़ानिस्तान के अन्य हज़ारों नागरिकों का अपने यहॉं स्वागत करेगा या नहीं? इस सबसे इतर सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कट्टरपंथी व उग्र तालिबान के फैल जाने से भारत की पश्चिम सीमाएं अब कितनी सुरक्षित रह पाएगी?खास तौर पर पाक अधिकृत कश्मीर आतंक का बेस केम्प बना कर भारत की सीमा को पहले से अधिक खतरा नही पहुंचाया जा सकता है? क्या हमारा जम्मू कश्मीर जो पाकिस्तानी घुसपैठ की अग्नि में पहले से ही झुलसता आया है फिर आतंकवादी गतिविधियों और घुंसपैठ की हवन में एक बार फिर भेंट चढ़ जाएगा?ऐसी अन्य अनेक चिंताएं भी बढ़ गई हैं। एक चिंता तो यह भी है कि अफगानिस्तान में तालिबान के शासन के साथ ही पाकिस्तान का प्रभाव वहां बढ़ेगा और इसके साथ ही लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे समूहों को भारत पर हमले के लिए अब पहले से कहीं अधिक अनियंत्रित स्थान मिल जाएगा।वहॉं तालिबान का नियंत्रण होने का यह भी मतलब है कि देश में अब पाकिस्तानी सेना और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियों का प्रभाव निर्णायक हो जाएगा। ऐसे में, अफ़ग़ानिस्तान में पिछले दो दशकों से चलाई गई विकास और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में भारत की भूमिका भी सिमट जाएगी हालांकि अब तक वहॉं के विकास को लेकर भारतीय प्रयासों की काफ़ी सराहना होती रही है।

इतना ही नहीं, तालिबानी शासन के आने के बाद भारत और अफ़ग़ानिस्तान के व्यापार – वाणिज्यिक सम्बन्धो पर भी खासा प्रभाव पड़ेगा।क्योंकि कारोबार कराची और ग्वादर बंदरगाह के ज़रिए हो सकता है। ऐसे में पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिहाज से ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए किया जा रहा भारत का निवेश अब अव्यावहारिक हो सकता है। भारत के सभी पड़ोसियों में कट्टरपंथ और इस्लामिक आतंकी समूहों और आतंकवादी घटनाओं के बढ़ने का ख़तरा पहले से अधिक गम्भीर हो गया है।अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर इस सप्ताह पाकिस्तान के साथ अमेरिका-रूस-चीन के विशेष दूतों के ‘ट्रॉइक-प्लस’ समूह की बैठक भी  हुई थी किन्तु भारत को दोहा में अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य में बहुत कम हिस्सेदारी वाले दूसरे समूह में शामिल किया गया।हालाँकि इस वक्त अमेरिका भले ही अफगान सरकार का साथ छोड़ दे और इससे बाहर निकल आए किंतु भारत यह जोखिम नहीं उठा सकता। उसे न केवल अपने निवेश की रक्षा करनी है वरन अफगानिस्तान को भारत विरोधी आतंकवादी समूहों के लिये एक और सुरक्षित आश्रय बनने से भी रोकना है। इसके साथ ही भारत को काबुल के ऊपर से पाकिस्तान के प्रभाव में वृद्धि पर भी संतुलित नियंत्रण कायम रखना है।इन सभी चिंताओं को देखते हुए वर्तमान परिस्थितियों में भारत के पास चंद विकल्प ही शेष हैं. हालांकि इनमें से कोई भी विकल्प सरल नहीं है और हो सकता है कि हर विकल्प विपरीत परिणाम भी ले कर आए। अतः इस वक्त यही उचित जान पड़ता है कि हम शांत रह कर ठीक वक्त की प्रतीक्षा करें। राजनीति में मौन रह कर उचित समय की प्रतीक्षा करने की नीति हमारे पुरोधा श्री कृष्ण ने सिखाई थी,इस वक्त भी हमे वही करना चाहिए। इस अंतरराष्ट्रीय उठापटक के दौर में

भारत को बिना शीघ्रता दिखाए अपनी श्रीकृष्ण की दिखाई उसी ‘प्रतीक्षा करो और देखो’ वाली नीति का अनुसरण करना चाहिये। उचित समय पर जब कुछ पृष्टभूमि स्पष्ट हो जाए कि कौन किसके साथ है?क्या अंतरराष्ट्रीय समीकरण बन रहे है? तभी अपनी भूमिका भी स्पष्ट करनी चाहिए और अपने क़दम भी उठाने चाहिए। यही एकमात्र विकल्प है कि भारत को बिना अपनी वार्ता प्रासंगिकता दांव पर लगाए इस वक्त समुचित व बुद्धिमत्ता पूर्ण राजनैतिक चातुर्य की नीति अपनानी होगी। और बिना तुरन्त और तीव्र प्रतिक्रिया दिए स्थिति स्पष्ट होने की प्रतीक्षा करनी होगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here